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त्रिषष्टितम पर्व
२०६ भूयादस्माकमप्येवमित्याशासनतत्पराः। 'पुण्यपर्ण्य समादाय भक्तिमौल्येन भाक्तिकाः ॥ ४७७॥ पाकशासनमुख्याच नाकलोकोन्मुखा ययुः। स्वाशनाद् विश्वलोकेशे पवित्र मन्दरं पुरम् ॥४७८॥ प्रविष्टाय प्रदायान्न प्रासुकं परमोत्सवात् । सुमित्राख्यमहीपालः प्रापदाश्वर्यपञ्चकम् ॥४७९॥ क्रमादेवं तपः कुर्वन्नुर्वी सर्वा पवित्रयन् । तनूकृतकषायः सन् मोहारातिजिगीषया ॥ १८०॥ बहुभिर्मुनिमिः साई श्रीमान् चक्रायुधादिभिः । सहस्राम्रवन प्राप्य नन्यावर्ततरोरधः ॥ १८१॥ श्रेष्ठः षष्ठोपवासेन धवले दशमीदिने । पौषे मासि दिनस्यान्ते पल्यङ्कासनमास्थितः ॥ १८२ ॥ प्राङ्मुखो बाह्यसामग्री नैर्ग्रन्थ्यादिमवाप्तवान् । कारणत्रयसम्प्राप्त क्षपकणिमध्यगः ॥ ४८३ ॥ आरूढतुर्यचारित्ररथो धाभिधानभाक् । ध्यानासिहतमोहारिवीतरागोऽन्त्यसंयमः ॥ ४८४॥ द्वितीय शुक्लसध्यानचक्रविच्छिनघातिकः । एवं षोडशवर्षाणि छानस्थ्यं भावमाश्रितः॥४८५॥ निर्ग्रन्थो नीरजा वीतविनो विश्वैकबान्धवः । केवलज्ञानसाम्राज्यश्रियं शान्तामशिश्रियत् ॥१८॥ तदा तीर्थकराख्योरुपुण्यकर्ममहामरुत् । संक्षोभितचतुर्भेदसुराम्भोधिविजम्भितः ॥ ४८७ ॥ स्वसमुद्भूतसद्भक्तिरजानीतपूजनः । रत्नावलीभिरित्येतं प्रार्थयत्प्राणभृत्पतिम् ॥ १८८॥ चक्रायुधादयश्चास्य पत्रिंशद्गगणनायकाः । शतान्यष्टौ समाख्याताः पूर्वाणां पारदर्शिनः ॥ ४८९॥
शुन्यद्वितयवस्वेकचतुनिर्मितशिक्षकाः । त्रिसहस्त्रावधिज्ञानसमुज्ज्वलविलोचनाः॥ ४९०॥ शान्तिनाथ भगवान्के साथ संयम धारण किया था ॥४७६ ॥ हमारे भी ऐसा ही संयम हो इस प्रकारकी इच्छा करते हुए इन्द्रादि भक्त देव, भक्तिरूपी मूल्यके द्वारा पुण्य रूपी सौदा खरीद कर स्वर्गलोकके सन्मुख चले गये ॥४७७॥
इधर आहार करनेकी इच्छासे समस्त लोकके स्वामी श्री शान्तिनाथ भगवान् मन्दिरपुर नगरमें प्रविष्ट हुए । वहाँ सुमित्र राजाने बड़े उत्सवके साथ उन्हें प्रासुक आहार देकर पश्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥४७८-४७६ || इस प्रकार अनुक्रमसे तपश्चरण करते हुए उन्होंने समस्त पृथिवीको पवित्र किया और मोहरूपी शत्रुको जीतनेकी इच्छासे कषायोंको कृश किया।॥ ४८० ॥ चक्रायुध आदि अनेक मुनियोंके साथ श्रीमान् भगवान् शान्तिनाथने सहस्राम्रवनमें प्रवेश किया और नन्द्यावर्त वृक्षके नीचे तेलाके उपवासका नियम लेकर वे विराजमान हो गये। अत्यन्त श्रेष्ठ भगवान् पौष शुक्ल दशमीके दिन सायंकालके समय पर्यकासनसे विराजमान थे। पूर्वकी ओर मुख था, निम्रन्थता आदि समस्त बाह्य सामग्री उन्हें प्राप्त थी, अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोंसे प्राप्त हुई क्षपक श्रेणीके मध्यमें वे अवस्थित थे, सूक्ष्मसाम्पराय नामक चतुर्थ चारित्ररूपी रथ पर आरूढ़ थे, प्रथम शुक्लध्यानरूपी तलवारके द्वारा उन्होंने मोहरूपी शत्रुको नष्ट कर दिया, अब वे वीतराग होकर यथाख्यातचारित्रके धारक हो गये। अन्तमुहूर्त बाद उन्होंने द्वितीय शुक्लध्यानरूपी चक्रके द्वारा घातिया कोको नष्ट कर दिया, इस तरह वे सोलह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्थाको प्राप्त रहे । मोहनीय कर्मका क्षय होनेसे वे निम्रन्थ हो गये, ज्ञानावरण, दर्शनावरणका अभाव होनेसे नीरज हो गये, अन्तरायका क्षय होनेसे वीतविघ्न हो गये और समस्त संसारके एक बान्धव होकर उन्होंने अत्यन्त शान्त केवलज्ञानरूपी साम्राज्यलक्ष्मीको प्राप्त किया ॥४८१-४८६ ॥ उसी समय तीर्थंकर नामका बड़ा भारी पुण्यकमरूपी महावायु, चतुणिकायके देवरूपी समुद्रको क्षुभित करता हुआ बड़े बढ़ रहा था ॥४८७ ॥ अपने आपमें उत्पन्न हुई सद्भक्ति रूपी तरङ्गोंसे जो पूजनकी सामग्री लाये हैं ऐसे सब लोग रनावली आदिके द्वारा, सब जीवोंके नाथ श्री शान्तिनाथ भगवानकी पूजा करने लगे ॥४५॥
- उनके समवसरणमें चक्रायुधको आदि लेकर छत्तीस गणधर थे. आठ सौ पर्वोके पारदर्शी थे. इकतालीस हजार आठ सौ शिक्षक थे, और तीन हजार अवधिज्ञानरूपी निर्मल नेत्रोंके धारक थे
१पुण्यं पण्यं ल०।२भकिमूल्येन ग०।३ लोकोत्सुका माल.४ स्वाश्रमान् विश्वलोकेशः ल०। ५सम्प्राप्ति म., ल०।६ श्रेण्या धबध्यानं न भवति, अत: 'शुकाभिधानभाग' इति पाटः सुष्टु प्रतिभाति ।
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