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महापुराणे उत्तरराणम्
मुक्त्वा शान्तिजिनं ततो बुधजनाः ध्यायन्तु सर्वोत्तरं १
२ सार्व शान्तिजिनेन्द्रमेव सततं शान्ति स्वयं प्रेप्सवः ॥ ५०९ ॥ ध्वस्तो मुक्तिपथः पुरुप्रभृतिभिर्देवैः पुनर्दर्शितः
किन्त्वन्तं प्रथितावधेर्गमयितुं कोऽपि प्रभुर्नाभवत् । देवेनाभिहितस्त्वनेन समगादव्याहतः स्वावधिं
तच्छान्ति समुपेत तत्रभवतामार्थ गुरुं धीधनाः ॥५१०॥
इत्यार्षे भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे शान्तिचक्रधरतीर्थंकरपुराणं परिसमाझं त्रिषष्टितमं पर्व ॥ ६३ ॥
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तो सबसे उत्तम और सबका भला करनेवाले श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्रका ही निरन्तर ध्यान करते रहो । ॥ ५०६ ॥ भोगभूमि आदिके कारण नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभनाथ आदि तीर्थंकरोंके द्वारा फिर फिरसे दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधिके अन्त तक ले जानेमें कोई भी समर्थ नहीं हो सका । तदनन्तर भगवान् शान्तिनाथने जो मोक्षमार्ग प्रकट किया वह बिना किसी बाधाके अपनी अवधिको प्राप्त हुआ । इसलिए हे बुद्धिमान् लोगो ! तुम लोग भी आयगुरु श्री शान्तिनाथ भगवान्की शरण लो । भावार्थ - शान्तिनाथ भगवान्ने जो मोक्षमार्ग प्रचलित किया था वही आज तक अखण्ड रूपसे चला आ रहा है इसलिए इस युगके श्रद्यगुरु श्री शान्तिनाथ भगवान् ही हैं । उनके पहले पन्द्रह तीर्थंकरोंने जो मोक्षमार्ग चलाया था वह बीच-बीच में विनष्ट होता
जाता था ।। ५१० ॥
इस प्रकार नाम से प्रसिद्ध, भगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराण संग्रह में शान्तिनाथ तीर्थंकर तथा चक्रवर्तीका पुराण वर्णन करनेवाला त्रेसठवाँ पर्व समाप्त हुआ ।
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१ सर्वोत्तमम् क०, ख०, ग०, घ० । २ सर्वे ख० ।
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