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चतुःषष्टितम पर्व
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निजजन्मदिने 'चक्रिलक्ष्मी सम्प्राप्य सम्मदात् । दशाङ्गभोगाग्निविश्य निःप्रतीपं निरन्तरम् ॥२८॥ षडङ्गबलसंयुक्तः कदाचित्क्रीडितुं वनम् । गत्वा रंवा चिरं स्वैरं निवृत्यायन्पुनः पुरम् ॥ २९ ॥ मुनिमातपयोगेन स्थितं कञ्चिनिरूपयन् । मन्त्रिणं प्रति तजिन्या पश्य पश्येति चक्रभृत् ॥ ३०॥ स तं निरीक्ष्य तत्रैव भक्त्यावनतमस्तकः । देवैवं दुष्करं कुर्वस्तपः किं फलमाप्स्यति ॥ ३१ ॥ इत्यप्राक्षीन्नृपोऽप्यस्य भूयः स्मेरमुखोऽवदत् । भवेऽस्मिन्नव निर्मूल्य कर्माण्यानोति निर्वृतिम् ॥३२॥ न चेदेवं सुरेन्द्रत्वचक्रवर्तित्वगोचरम् । सुखमभ्युदयं भुक्त्वा क्रमाच्छाश्वतमेष्यति ॥ ३३ ॥ अपरित्यक्तसङ्गस्य भवे पर्यटनं भवेत् । इत्युच्चैर्मुक्तिसंसारकारणं परमार्थवित् ॥ ३४ ॥ कालो माण्डलिकत्वेन यावानीतः सुखायुषा । तावत्येव समानीय महेच्छश्चक्रवर्तिताम् ॥ ३५॥ विरज्य राज्यभोगेषु निर्वाणसुखलिप्सया । स्वातीतभवबोधेन लब्धबोधिर्बुधोत्तमः ॥ ३६॥ सारस्वतादिसंस्तोत्रमपि सम्भाव्य सादरम् । स्वजे नियोज्य राज्यस्य भारं निष्क्रमणोत्सवम् ॥३७॥ स्वयं सम्प्राप्य देवेन्द्रैः शिबिकां विजयाभिधाम् । आरुह्यामरसंवायां सहेतुकवनं प्रति ॥ ३८॥ गत्वा षष्ठोपवासेन संयम प्रत्यपद्यत । जन्ममाःपक्षदिवसे कृत्तिकायां नृपोत्तमैः ॥ ३९ ॥ सहस्रेणाप तुर्यावबोधं च दिवसात्यये । पुरं हास्तिनमन्येद्यस्तस्मै गतवतेऽदित ॥ ४०॥ आहारं धर्ममित्राख्यः प्राप चाश्चर्यपञ्चकम् । कुर्वन्नेवं तपो घोरं नीत्वा षोडशवत्सरान् ॥ ११॥ "निजदीक्षावने षष्ठेनोपवासेन शुद्धिभाक । तिलकद्रममूलस्थश्चैत्रज्योत्स्नापराहके ॥ ४२ ॥
और इतना ही समय बीत जानेपर उन्हें अपनी जन्मतिथिके दिन चक्रवर्तीकी लक्ष्मी मिली थी। इसप्रकार वे बड़े हर्षसे वाधारहित, निरन्तर दश प्रकारके भोगोंका उपभोग करते थे ॥ २७-२८ ॥ किसी समय वे षडङ्ग सेनासे संयुक्त होकर क्रीडा करनेके लिए वनमें गये थे वहाँ चिरकाल तक इच्छानुसार क्रीडाकर वे नगरको वापिस लौट रहे थे ॥ २६॥ कि मार्गमें उन्होंने किसी मुनिको आतप योगसे स्थित देखा और देखते ही मन्त्रीके प्रति तर्जनी अंगुलीसे इशारा किया कि देखो, देखो। मन्त्री उन मुनिराजको देखकर वहींपर भक्तिसे नतमस्तक हो गया और पूछने लगा कि हे देव ! इस तरहका कठिन तप तपकर ये क्या फल प्राप्त करेंगे ? ॥ ३०-३१ ॥ चक्रवर्ती कुन्थुनाथ हँसकर फिर कहने लगे कि ये मुनि इसी भवमें कर्मोको नष्टकर निर्वाण प्राप्त करेंगे। यदि निर्वाण न प्राप्तकर सकेंगे तो इन्द्र और चक्रवर्तीके सुख तथा ऐश्वर्यका उपभोगकर क्रमसे शाश्वतपद-मोक्ष स्थान प्राप्त करेंगे॥३२-३३ ।। जो परिग्रहका त्याग नहीं करता है उसीका संसारमें परिभ्रमण होता है। इस प्रकार परमार्थको जाननेवाले भगवान् कुन्थुनाथने मोक्ष तथा संसारके कारणोंका निरूपण किया ॥ ३४॥ उन महानुभावने सुखपूर्वक आयुका उपभोग करते हुए जितना समय मण्डलेश्वर रहकर व्यतीत किया था उतना ही समय चक्रवर्तीपना प्राप्तकर व्यतीत किया था ।। ३५ ।। तदनन्तर, अपने पूर्वभवका स्मरण होनेसे जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया है ऐसे विद्वानोंमें श्रेष्ठ भगवान् कुन्थुनाथ निर्वाण सुख प्राप्त करनेकी इच्छासे राज्यभोगोंमें विरक्त हो गये ॥३६ ॥ सारस्वत आदि लौकान्तिक देवोंने आकर बड़े आदरसे उनका स्तवन किया। उन्होंने अपने पुत्रको राज्यका भार देकर इन्द्रोंके द्वारा किया हुआ दीक्षा-कल्याणकका उत्सव प्राप्त किया। तदनन्तर देवोंके द्वारा ले जाने योग्य विजया नामकी पालकीपर सवार होकर वे सहेतुक वनमें गये । वहाँ तेलाका नियम लेकर जन्मके ही मास पक्ष और दिनमें अर्थात् वैशाखशुक्ल प्रतिपदाके दिन कृत्तिका नक्षत्रमें सायंकालके समय एक हजार राजाओंके साथ उन्होंने दीक्षा धारण कर ली। उसी समय उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन वे हस्तिनापुर गये वहाँ धर्ममित्र राजाने उन्हें आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये । इस प्रकार घोर तपश्चरण करते हुए उनके सोलह वर्ष बीत गये ॥ ३७-४१ ॥ किसी एक दिन
१ चक्रिलक्ष्मों इति पाठः शुद्धो भाति । २ निःप्रतीपं इति पाठो भवेत् । ३ कारणं ल.। ४जिनदीक्षा ल०।
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