________________
२१६
महापुराणे उत्तरपुराणम् कृत्तिकायां तृतीयायां कैवल्यमुदपादयत्' । मुदा तत्कालसम्प्राप्तसमरसमथितम् ॥४३॥ प्रार्थं चतुर्थकल्याणपूजाविधिमवाप सः। तस्य स्वयम्भूनामाद्याः पञ्चत्रिंशद्गणेशिनः॥४४॥ शतानि सप्त पूर्वाणां संविदो मुनिसत्तमाः। खपञ्चैकत्रिवार्युक्ताः शिक्षकाः लक्षिताशयाः ॥ ४५ ॥ खद्वयेन्द्रियपक्षोक्तास्तृतीयावगमामलाः। शून्यद्वयद्विवह्वयुक्ताः केवलज्ञानभास्वराः॥ १६ ॥ खद्वयैकेन्द्रियज्ञातविक्रियद्धिविभूषणाः । त्रिशतत्रिसहस्राणि चतुर्थज्ञानधारिणः ॥ ७ ॥ पञ्चाशद्विसहस्राणि ख्यातानुत्तरवादिनः। सर्वे ते पिण्डिताः षष्टिसहस्राणि यमेश्वराः॥४८॥ भाविताद्यायिकाः शून्यपञ्चवह्निखषण्मिताः । विलक्षाः श्राविका लक्षद्वयं सर्वेऽप्युपासकाः ॥ १९ ॥ ४देवदेव्यस्त्वसङ्ख्यातास्तिर्यञ्चः५ सङ्ख्यया मिताः । दिव्यध्वनिनामीषां कुर्वन्धर्मोपदेशनाम् ॥ ५०॥ देशान् विहृत्य मासायुः सम्मेदाचलमास्थितः । प्रतिमायोगमादाय सहस्रमुनिभिः सह ॥ ५ ॥ वैशाखज्योत्स्नपक्षादिदिने रात्रेः पुरातने । भागे कर्माणि निर्मूल्य कृत्तिकायां निरन्जनः ॥५२॥ प्राप्तगीर्वाणनिर्वाणपूजः प्रापत्परं पदम् । संशुद्धज्ञानवैराग्यसाबाधमविनश्वरम् ॥ ५३ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् आसीत् सिंहरथो नृपः पृथुतपाः सर्वार्थसिद्धीश्वरः
कल्याणद्वयभाक् षडङ्गशिविरबैलोक्यमुख्याचिंतः। प्राप्तात्माष्टगुणस्त्रिविष्टपशिखाप्रोद्भासिचूडामणि
दिश्याद्वः श्रियमप्रतीपमहिमा कुन्थुखिनः शास्वतीम् ॥ ५४॥
विशुद्धताको धारण करनेवाले भगवान् तेलाका नियम लेकर अपने दीक्षा लेनेके वनमें तिलकवृक्षके नीचे विराजमान हुए। वहीं चैत्रशुक्ला तृतीयाके दिन सायंकालके समय कृत्तिका नक्षत्रमें उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय हर्षके साथ सब देव आये। सबने प्रार्थनाकर चतुर्थकल्याणककी पूजा की। उनके स्वयंभूको आदि लेकर पैंतीस गणधर थे, सात सौ मुनिराज पूर्वोके जानकार थे,
लीस हजार एक सों पचास ममवेदी शिक्षक थे, दो हजार पाँच सौ निमेल अवधिज्ञानके धारक थे तीन हजार दो सौ केवलज्ञानसे देदीप्यमान थे, पाँच हजार एक सौ विक्रियाऋद्धिके धारक थे, तीन हजार तीन सौ मनःपर्ययज्ञानी थे, दो हजार पचास प्रसिद्ध एवं सर्वश्रेष्ठ वादी थे, इस तरह सब मिलाकर साठ हजार मुनिराज उनके साथ थे ।।४२-४८|| भाविताको आदि लेकर साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ थीं, तीनलाख श्राविकाएँ थीं, दो लाख श्रावक थे, असंख्यात देव-देवियाँ थीं और संख्यात तिर्यश्च थे। भगवान्, दिव्यध्वनिके द्वारा इन सबके लिए धर्मोपदेश देते हुए विहार करते थे। ४६-५०॥ इस प्रकार अनेक देशोंमें विहारकर जब उनकी आयु एक मासकी बाकी रह गई तब वे सम्मेदशिखरपर पहुंचे। वहाँ एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमा योग धारण कर लिया
और वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन रात्रिके पूर्वभागमें कृत्तिका नक्षत्रका उदय रहते हुए समस्त कर्मोको उखाड़कर परमपद प्राप्त कर लिया। अब वे निरञ्जन-कर्मकलङ्कसे रहित हो गये। देवोंने उनके निर्वाण-कल्याणक की पूजा की । उनका वह परमपद अत्यन्त शुद्ध ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण तथा अविनाशी था ॥ ५१-५३ ॥
जो पहले भवमें राजा सिंहस्थ थे, फिर विशाल तपश्चरणकर सर्वार्थसिद्धिके स्वामी हुए, फिर तीर्थंकर और चक्रवर्ती इसप्रकार दो पदोंको प्राप्त हुए, जो छह प्रकारकी सेनाओंके स्वामी थे, तीनों लोकोंके मुख्य पुरुष जिनकी पूजा करते थे, जिन्हें सम्यक्त्व आदि आठ गुण प्राप्त हुए थे, जो तीन लोकके शिखरपर चूड़ामणिके समान देदीप्यमान थे और जिनकी महिमा बाधासे रहित थी ऐसे
१-मुपपादयत् ल०। २ समर्थितः ख०। ३ भास्कराः ल०। ४ देव्यस्त्वसंख्याता म०, ५०, देवादेख्योऽप्यसंख्या-ल०।५ तिर्यग्जाः ग०, ख०, म०, तिर्यक्काः खः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org