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महापुराणे उत्तरपुराणम् सुरसेनो महाराजः श्रीकान्ताऽस्याग्रवल्लभा। देवेभ्यो वसुधारादिपूजामाप्तवती सती ॥१३॥ 'भागे मनोहरे यामे दशम्यां निशि पश्चिमे । श्रावणे बहुले पक्षे नक्षत्रे कृत्तिकालये ॥ १४ ॥ सर्वार्थसिद्धिदेवस्य स्वर्गावतरणक्षणे । दृष्टषोडशसुस्वमा गजं वक्त्रप्रवेशिनम् ॥ १५॥ निशम्य यामभेर्यादिमङ्गलध्वनिबोधिता। कृतनित्यक्रिया स्नात्वा तमङ्गलमण्डना ॥१६॥ आप्तः कतिपयैरेव वृत्ता विद्युद्विलासिनी। द्योतयन्ती सदोव्योम साक्षालक्ष्मीरिवापरा ॥ १७ ॥ कृतानुरूपविनया भर्तुरर्द्धासने स्थिता। स्वप्नावली निवेद्यास्माद्विदित्वावधिवीक्षणात् ॥१८॥ फलान्यनुक्रमाचेषां विकसद्वदनाम्बुजा। नलिनीवांशुसंस्पर्शादुष्णांशोरतुषत्तराम् ॥ १९॥ तदैवानिमषाधीशाः कल्याणाभिषवं तयोः । विधाय वहुधाभ्यय॑ तोषयित्वा ययुदिवम् ॥ २० ॥ शुक्तिमुक्ताविशेषेण नाभूत्सा तेन गर्भिणी । क्रोडीकृता मृताभीषुमेघरेखेव चाबभौ ॥ २१॥ नवमे मासि वैशाखशुक्लपक्षादिमे दिने । साऽसूताग्नेययोगे वा' विधुं तमपरा दिशा ॥ २२॥ तुरासहं पुरोधाय समभ्येत्य सुरासुराः । सुमेरुमक नीत्वा क्षीरसैन्धववारिभिः ॥ २३ ॥ अभिषिच्य विभूष्यैनं कुन्थुमाहूय संज्ञया । समानीय समायन् पित्रोरावासमात्मनः ॥ २४॥ शान्तीशतीर्थसन्तानकालेऽजनि जिनेश्वरः । पल्योपमाः पुण्याब्धिस्तदभ्यन्तरजीवितः ॥ २५ ॥ समाः पञ्चसहस्रोनलक्षाः संवत्सरस्थितिः । पञ्चत्रिंशद्धनुः कायो निष्टसाष्टापदद्युतिः॥ २६ ॥
खपञ्चमुनिवद्विद्विप्रमसंवत्सरान्तरे। नीत्वा कौमारमेतावत्येव काले च राजताम् ॥ २७ ॥ कौरववंशी काश्यपगोत्री महाराज सूरसेन राज्य करते थे। उनकी पट्टरानीका नाम श्रीकान्ता था। उस पतिव्रताने देवोंके द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त की थी। १२-१३॥ श्रावण कृष्ण दशमीके दिन रात्रिके पिछले भाग सम्बन्धी मनोहर पहर और कृत्तिका नक्षत्र में जब सर्वार्थसिद्धिके उस अहमिन्द्रकी आयु समाप्त होनेको आई तब उसने सोलह स्वप्न देखकर अपने मुँहमें प्रवेश
आ एक हाथी देखा।। १४-१५ ।। प्रातःकाल भरी आदिके माङ्गलिक शब्द सुनकर जगी, नित्य कार्यकर स्नान किया, माङ्गलिक आभूषण पहिने और कुछ प्रामाणिक लोगोंसे परिवृत होकर बिजलीके समान सभारूपी आकाशको प्रकाशित करती हुई दूसरी लक्ष्मीके समान राजसभामें पहुँची। वहाँ वह अपनी योग्यताके अनुसार विनयकर पतिके अर्धासनपर विराजमान हुई । अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करनेवाले पतिको सब स्वप्न सुनाये और उनसे उनका फल मालूम किया। अनुक्रमसे स्वप्नोंका फल जानकर उसका मुखकमल इस प्रकार खिल उठा जिस प्रकार कि सूर्यकी किरणोंके स्पर्शसे कमलिनी खिल उठती है ॥ १६-१६॥ उसी समय देवोंने महाराज शरसेन और महारानी श्रीकान्ताका गर्भकल्याणक सम्बन्धी अभिषेक किया, बहुत प्रकारकी पूजा की और सन्तुष्ट
। ओर प्रयाण किया ॥२०॥ जिस प्रकार मुक्ताविशेषसे सीप गर्भिणी होती है उसी प्रकार उस पुत्रसे रानी श्रीकान्ता गर्भिणी हुई थी और जिस प्रकार चन्द्रमाको गोदीमें धारण करनेवाली मेघोंकी रेखा सुशोभित होती है उसी प्रकार उस पुत्रको गर्भमें धारण करती हुई रानी श्रीकान्ता सुशोभित हो रही थी ॥ २१॥ जिस प्रकार पश्चिम दिशा चन्द्रमाको उदित
ती है उसी प्रकार रानी श्रीकान्ताने नव मास व्यतीत होने पर वैशाख शुक्ल प्रतिपदाके दिन आग्नेय योगमें उस पुत्रको उदित किया--जन्म दिया ॥२२॥ उसी समय इन्द्रको
आगे कर समस्त देव और धरणेन्द्र आये, उस बालकको सुमेरु पर्वत पर ले गये, क्षीरसागरके जलसे उनका अभिषेक किया, अलंकारोंसे अलंकृत किया, कुन्थु नाम रखा, वापिस सारे माता-पिताको समर्पण किया और अन्तमें सब अपने स्थान पर चले गये ॥ २३-२५॥ श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकरके मोक्ष जानेके बाद जब आधा पल्य बीत गया तब पुण्यके सागर श्रीकुन्थनाथ भगवान् उत्पन्न हुए थे, उनकी आयु भी इसी अन्तरालमें सम्मिलित थी॥ २५ ॥ पश्चानवे हजार वर्षकी उनकी आयु थी, पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाये हुए सुवर्णके समान कान्ति थी ।। २६ ।। तेईस हजार सात सौ पचास वषे कुमारकालके बीत जानेपर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ था
१ भोगे ल० । २ च ल ।
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