________________
त्रिषष्टितम पर्व
२११
स्वाकार विगतादिभूतसमये नष्टं समाप्य स्फुट
शान्तीशस्त्रिजगच्छिखामणिरभूदाविर्भवत्प्राभवः ॥ ५०३ ॥ श्रीषणः कुरुजः सुरः खगपतिर्देवो हलेशोऽमरो
यो वज्रायुधचक्रभृत्सुरपतिः 'प्राप्याहामेन्द्रं पदम् । पश्चान्मेघरथो मुनीन्द्रमहितः सर्वार्थसिद्धि श्रितः
शान्तीशो जगदेकशान्तिरतुलां दिश्याच्छ्यिं वश्चिरम् ॥ ५०४ ॥ आदावनिन्दिताभोगभूमिजो विमलप्रभः । ततः श्रीविजयो देवोऽनन्तवीर्योऽनु नारकः ॥ ५०५॥ मेघनादः प्रतीन्द्रोऽभूतत्सहस्त्रायुधोऽजनि । ततोऽहमिन्द्रकल्पेशोऽनल्पद्धिरभवत्ततः ॥ ५०६ ॥ अयुतो दृढरयो जज्ञे प्राज्ञो मेघरथानुजः । अन्स्यानुत्तरजश्चक्रायुधो गणधरोऽक्षरः ॥ ५०७ ॥
मालिनी इति हितकृतवेदी बद्धसौहार्दभावः
__ सकलजगदधीशा शान्तिनाथेन सार्द्धम् परमसुखपदं सम्प्राप चक्रायुधाबोर __ भवति किमिह नेष्टं सम्प्रयोगान्महद्भिः ॥ ५०८ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् अन्ये तावदिहासतां भगवतां मध्येऽपि तीर्थेशिनां
कोऽसौ द्वादशजन्मसु प्रतिभवं प्रापत्प्रवृद्धि पराम् । कारणोंसे सहित समस्त आठों कर्मोको उखाड़ कर अत्यन्त निर्मल हुए थे, जो सम्यक्त्व आदि आठ आत्मीय गुणोंको स्वीकार कर जन्म-मरणसे रहित तथा कृतकृत्य हुए थे, एवं जिनके अष्ट महाप्रातिहार्यरूप वैभव प्रकट हुआ था वे शान्तिनाथ भगवान् अनादि भूतकालमें जो कभी प्राप्त नहीं हो सका ऐसा स्वस्वरूप प्राप्त कर स्पष्ट रूपसे तीनों लोकोंके शिखामणि हुए थे ॥ ५०३ ।। जो पहले राजा श्रीषेण हुए, फिर उत्तम भोगभूमिमें आर्य हुए, फिर देव हुए, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वज्रायुध चक्रवर्ती हुए, फिर अहमिन्द्र पद पाकर देवोंके स्वामी हुए, फिर मेघरथ हुए, फिर मुनियोंके द्वारा पूजित होकर सर्वार्थसिद्धि गये, और फिर वहाँसे
आकर जगत्को एक शान्ति प्रदान करनेवाले श्री शान्तिनाथ भगवान् हुए वे सोलहवें तीर्थंकर तुम सबके लिए चिरकाल तक अनुपम लक्ष्मी प्रदान करते रहें ॥५०४ ॥ जो पहले अनिन्दिता रानी हुई थी, फिर उत्तम भोगभूमिमें आये हुआ था, फिर विमलप्रभ देव हुआ, फिर श्रीविजय राजा हुश्रा, फिर देव हुआ, फिर अनन्तवीर्य नारायण हुआ, फिर नारकी हुआ, फिर मेघनाद हुआ, फिर प्रतीन्द्र हुआ, फिर सहस्रायुध हुआ, फिर बहुत भारी ऋद्धिका धारी अहमिन्द्र हुआ, फिर वहाँसे च्युत होकर मेघरथका छोटा भाई बुद्धिमान् दृढरथ हुआ, फिर अन्तिम अनुत्तर विमानमें अहमिन्द्र हुआ, फिर वहाँसे आकर चक्रायुध नामका गणधर हुआ, फिर अन्तमें अक्षर-अविनाशीसिद्ध हुआ ।। ५०५-५०७ ॥ इस प्रकार अपने हित और किये हुए उपकारको जाननेवाले चक्रायुधने अपने भाईके साथ सौहार्द धारण कर समस्त जगत्के स्वामी श्री शान्तिनाथ भगवान्के साथ-साथ परमसुख देनेवाला मोक्ष पद प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंकी संगतिसे इस संसारमें कौन-सा इष्ट कार्य सिद्ध नहीं होता ? ॥ ५०८॥ इस संसारमें अन्य लोगोंकी तो बात जाने दीजिये श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्रको छोड़कर भगवान् तीर्थंकरों में भी ऐसा कौन है जिसने वारह भवोंमें से प्रत्येक भवमें बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो ? इसलिए हे विद्वान् लोगो, यदि तुम शान्ति चाहते हो
१-पतिाप्याइमिन्द्रं ख०। २ चक्रायुषीको ल.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org