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महापुराणे उत्तरपुराणम् अलङ्कर्वनिजच्छायाद्वयमालोक्य दर्पणे । साश्चर्य चिन्तयन्नेतत्किमित्यन्तर्गत कृती॥ ४१२॥ लब्धबोधिर्मतिज्ञानक्षयोपशमसम्पदा । स्वजन्मान्तर सन्तान स्मृत्वा निर्वेदमाप्तवान् ॥४६३॥ घनच्छायासमाः सर्वसम्पदः सशराहति-। विद्युदुद्युतिवल्लक्ष्मीः कायो मायामयोऽपि वा ॥ ४६४ ॥ प्रातःछायायुरात्मीयाः परकीया वियोगवत् । संयोगो हानिववृद्धिर्जन्मेदं पूर्वजन्मवत् ॥ ४६५ ॥ इति चेतसि सम्पश्यन् सर्वमेतन्महीपतिः । निर्गन्तुमुद्ययौ गेहाद् दूरीकृतदुराशयः ॥ ४६६ ॥ तदा लौकान्तिकाः प्राप्य धर्मतीर्थस्य वर्द्धने । कालोऽयं तव देवस्य चिरविच्छिन्नसन्ततेः ॥ ४६७ ॥ इत्यवोचन्वचस्तेषामनुमत्य महामतिः । नारायणाय तद्राज्यं सूनवेऽश्राणयन्मुदा ॥ ४६८॥ ततः सरगणाधीशविहिताभिषवोत्सवः । युक्तिमद्वचनैर्बन्धून् मोचयित्वाग्रणीः सताम् ॥ ४६९ ॥ सर्वार्थसिद्धिं शिविकामारुह्य स मरुद्धताम् । सहस्राम्रवनं प्राप्य कमनीयशिलातले ॥ ४७०॥ कुबेरदिङमुखो बद्धपल्यकासनसुस्थितः । ज्येष्ठ्ये मास्यसिते पक्षे २चतुर्दश्यपराहके ॥१७॥ ऋक्षे षष्ठोपवासेन भरण्यां प्रणिधानवान् । कृतसिद्धनमस्कारस्त्यकवस्त्रायुपच्छदः ॥ ४७२॥ पञ्चमुष्टिभिरल्लुञ्च्य केशान् केशानिवायतान् । जातरूपं हसन् दीप्त्या जातरूपमवाप्य सः॥४७३॥ सद्यः सामयिकी शुद्धिं समनःपर्ययामगात् । केशांस्तदैव देवेशो ज्वलत्पटलिकाश्रितान् ॥४७॥ यथा बहुगुणीभूतानामोदमिलितालिभिः। पञ्चमाब्धितरङ्गाणां परभागे व्यधात्तराम् ॥ ४७५॥
चक्रायुधादि तद्राज्ञां सहस्रं सह संयमम् । शान्तिनाथेन सम्प्रापदापदामन्तकारिणा ॥ ४७६ ॥ उनके पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये तब एक दिन वे अपने अलंकार-गृहके भीतर अलंकार धारण कर रहे थे उसी समय उन्हें दर्पणमें अपने दो प्रतिबिम्ब दिखे। वे बुद्धिमान भगवान् आश्चर्यके साथ अपने मनमें विचार करने लगे कि यह क्या है ? ॥४६१-४६२ ।। उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमरूप सम्पदासे वे पूर्व जन्मकी सब बातें जान कर वैराग्यको प्राप्त हो गये ॥ ४६३ ॥ वे विचार करने लगे कि समस्त सम्पदाएँ मेघोंकी छायाके समान हैं, लक्ष्मी इन्द्रधनुष और बिजलीकी चमकके समान हैं, शरीर मायामय है, आयु प्रातःकालकी छायाके समान है-उत्तरोत्तर घटती रहती है, अपने लोग परके समान हैं, संयोग वियोगके समान है, वृद्धि हानिके समान है और यह जन्म पूर्व जन्मके समान है ॥४६४-४६५।। ऐसा विचार करते हुए चक्रवर्ती शान्तिनाथ अपने समस्त दुर्भाव दूर कर घरसे बाहर निकलनेका उद्योग करने लगे ॥ ४६६ ॥ उसी समय लौकान्तिक देवोंने आकर कहा कि हे देव ! जिसकी चिरकालसे सन्तति टूटी हुई है ऐसे इस धर्मरूप तीर्थके प्रवर्तनका आपका यह समय है ॥४६७ ॥ महाबुद्धिमान् शान्तिनाथ चक्रवर्तीने लौकान्तिक देवोंकी वाणीका अनुमोदन कर अपना राज्य बड़े हर्षसे नारायण नामक पत्रके लिए दे दिया ।। ४६८ ॥ तदनन्तर देवसमूहके अधिपति इन्द्रने उनका दीक्षाभिषेक किया। इस प्रकार सजनोंमें अग्रेसर भगवान् युक्तिपूर्ण वचनोंके द्वारा समस्त भाई-बन्धुओंको छोड़कर देवताओंके द्वारा उठाई हुई सर्वार्थसिद्धि नामकी पालकीमें आरूढ़ हुए और सहस्राम्रवनमें जाकर सुन्दर शिलातल पर उत्तरकी ओर मुख कर पर्यकासनसे विराजमान हो गये। उसी समय ज्येष्ठकृष्ण चतुर्दशीके दिन शामके वक्त भरणी नक्षत्रमें बेलाका नियम लेकर उन्होंने अपना उपयोग स्थिर किया, सिद्ध भगवानको नमस्कार किया, वस्त्र आदि समस्त उपकरण छोड़ दिये, पञ्चमुट्ठियोंके द्वारा नाले क्लेशोंके समान केशोंको उखाड़ डाला। अपनी दीप्तिसे जातरूप-सुवर्णकी हसी करते हए उन्होंने जातरूप-दिगम्बर मुद्रा प्राप्त कर ली, और शीघ्र ही सामायिक चारित्र सम्बन्धी विशुद्धता तथा मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया। इन्द्रने उनके केशोंको उसी समय देदीप्यमान पिटारेमें रख लिया। सुगन्धिके कारण उन केशों पर आकर बहुतसे भ्रमर बैठ गये थे जिससे ऐसा जान पड़ता था कि वे कई गुणित हो गये हों। इन्द्रने उन केशोंको क्षीरसागरकी तरङ्गोंके उस ओर क्षेप ॥४६-४७५ ।। चक्रायुधको आदि लेकर एक हजार राजाओंने भी विपत्तिको अन्त करनेवाले श्री
संजातं मः। २ चतुर्दश्यां पराहके म०,। चतुर्थ्यामपराहके ल०।३ प्रणिप्रणिधानवत ल०। ४ परं भार्ग ख०।
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