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महापुराणे उत्तरपुराणम् व्याप्तमध्यमणिच्छायाहारं वक्षो व्यधाराराम् । मध्यीकृतार्कसन्ध्याहेमाद्रितटसलिभम् ॥ ४३४॥ तन्मध्यं मुष्टिसम्मायि विभय॑र्ध्वतनोभरम् । गुरुं निराकुल तस्य तानवं तेन शोभते ॥४३५॥ गम्भीरा दक्षिणावर्ता तस्याभ्युदयसूचिनी । नाभिः सपद्मा मध्यस्था स्यात्पदं न स्तुतेः कुतः ॥४३६॥ कटीतटी कटीसूत्रधारिणी हारिणी भृशम् । सवेदिकास्थली वास्य जम्बूद्वीपस्य भासते ॥ ४३७ ॥ वृते श्लक्ष्णे सुखस्पर्शे स्तां रम्भास्तम्भसन्निभे। किन्त्वस्योरू सदादत्तफले गुरुभरक्षमे ॥ ४३८ ॥ मर्यादाकारि यत्तस्मात्तदेतस्योरुजल्योः । शस्य जानुद्वयं सन्निः सक्रिय किन्न शस्यते ॥ १३९ ॥ नमिताशेषदेवेन्द्रौपादपो श्रिया श्रितौ। तयोरुपरि चेजले तस्य का वर्णना परा ॥४४०॥ गुल्फयोरिव मन्त्रस्य गूढतेव गुणोऽभवत् । फलदा सा ततः सर्व फलकृत्वाद् गुणि स्मृतम् ॥ ४४१ ॥ कूर्मपृष्ठौ क्रमौ तस्य श्रित्वा तौ सुस्थिता धरा । ता कूर्मेण धात्रीति ध्रुवं रुढिस्ततोऽभवत् ॥४४२॥ पीनावनोजतौ सुस्थौ तस्यांगुष्ठौ सुखाकरौ । रेजतुर्दर्शयन्तौ वा मार्ग स्वर्गापवर्गयोः ॥ ४४३॥ अष्टावंगुलयस्तस्य बभुः श्लिष्टाः परस्परम् । कर्माण्यष्टावपट्टोतुं निर्गता एव शक्तयः॥ ४४४॥ दशधर्माः पुरेवैनं तद्व्याजेनेव सेवितुम् । क्रमौ समाश्रितास्तस्य व्यराजन्त नखाः सुखाः ॥ ४४५ ॥
अस्यावयवभावात्ते वासवाद्या नमन्ति नौ । इतीव रागिणौ तस्य पादौ पल्लवसन्निभौ ॥ ४४६ ॥ एक दूसरेकी बाधाके बिना ही इसमें निवास कर सकें यह सोचकर ही मानो विधाताने उनका वक्षःस्थल बहुत चौड़ा बनाया था ।। ४३३ ।। जिसके मध्यमें मणियोंकी कान्तिसे सुशोभित हार पड़ा हुआ है ऐसा उनका वक्षःस्थल, जिसके मध्यमें संध्याके लाल लाल बादल पड़ रहे हैं ऐसे हिमाचलके तटके समान जान पड़ता था ।। ४३४ ॥ मुट्ठीमें समानेके योग्य उनका मध्यभाग चूंकि उपरिवर्ती शरीरके बहुत भारी बोझको बिना किसी आकुलताके धारण करता था अतः उसका पतलापन ठीक ही शोभा देता था ॥ ४३५ ॥ उनकी नाभि चूँकि गम्भीर थी, दक्षिणावर्तसे सहित थी। अभ्युदय, को सूचित करने वाली थी, पद्मचिह्नसे सहित थी और मध्यस्थ थी अतः स्तुतिका स्थान-प्रशंसा का पात्र क्यों नहीं होती ? अवश्य होती॥ ४३६ ।। करधनीको धारण करनेवाली उनकी सुन्दर कमर बहुत ही अधिक सुशोभित होती थी और जम्बूद्वीपकी वेदीसहित जगतीके समान जान पड़ती थी ॥ ४३७ ।। उनके ऊरु केलेके स्तम्भके समान गोल, चिकने तथा स्पर्श करने पर सुख देने वाले थे अन्तर केवल इतना था कि केलेके स्तम्भ एक बार फल देते हैं परन्तु वे बारबार फल देते थे - और केलेके स्तम्भ बोझ धारण करनेमें समर्थ नहीं हैं परन्तु वे बहुत भारी बोझ धारण करने में समर्थ थे॥४३८ ।। चूंकि उनके घुटनोंने ऊरु और जंघा दोनोंके बीच मर्यादा कर दी थी-दोनोंकी सीमा बांध दी थी इसलिए वे सत्पुरुषोंके द्वारा प्रशंसनीय थे सो ठीक ही है क्योंकि जो अच्छा कार्य करता है उसकी प्रशंसा क्या नहीं की जावे? अवश्य की जावे ॥४३६ ।। उनके चरणकमल समस्त इन्द्रोंको नमस्कार कराते थे तथा लक्ष्मी उनकी सेवा करती थी। जब उनके चरणकमलोंका यह हाल था तब जङ्घाएँ तो उनके ऊपर थीं इसलिए उनका और वर्णन क्या किया जाय? ॥४४०॥ जिस प्रकार मन्त्रमें गूढ़ता गुण रहता है उसी प्रकार उनके दोनों गुल्फों--एड़ीके ऊपरकी गांठोंमें गढता गुण रहता था परन्तु उनकी यह गुणता फल देने वाली थी सो ठीक ही है क्योंकि सभी पदार्थ फलदायी होनेसे ही गुणी कहलाते हैं ॥ ४४१ ।। उनके दोनों चरणोंका पृष्ठभाग कछुएके समान था और यह पृथिवी उन्हींका श्राश्रय पा कर निराकुल थी । जान पड़ता है कि 'पृथिवी कछुएके द्वारा धारण की गई है, यह रूढि उसी समयसे प्रचलित हुई है ॥४४२॥ उनके दोनों अंगूठे स्थूल थे, आगेको उठे हुए थे, अच्छी तरह स्थित थे, सुखकी खान थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो स्वर्ग तथा मोक्षका मार्ग ही दिखला रहे हों ॥४४३॥ परस्परमें एक दूसरेसे सटी हुई उनकी
आठों अँगुलियाँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो आठों कोंका अपह्नव करनेके लिए आठ शक्तियाँ ही प्रकट हुई हों। ४४४ ॥ उनके चरणोंका आश्रय लेनेवाले सुखकारी दश नख ऐसे सुशोभित होते थे मानो उन नखोंके बहाने उत्तम क्षमा आदि दशधमें उनकी सेवा करनेके लिए पहलेसे ही आ गये हो । ४४५ ॥ हम भगवान्के शरीरके अवयव हैं इसीलिए इन्द्र श्रादि देव हम दोनोंको नमस्कार
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