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त्रिषष्टितम पर्व
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लक्ष्मीललाटपट्टेऽस्मिस्तस्य पदयाचिंता । राजतामिति वा तुङ्ग विस्तीर्ण च व्यधाद्विधिः॥४२०॥ सुरूपे कुटिले चास्य भ्रुवौ वेश्येव रेजतुः । कुटिलेति न रेखा किं पीयूषांशोविराजते ॥ ४२१ ॥ आधिक्यं चक्षुषोः प्राहुः शुभावयवचिन्तका । वीक्ष्य तश्चक्षुषी व्यक्तमितीयमनयोः स्तुतिः ॥ ४२२ ॥ कौँ तस्य न वयेते नि:शेषश्रुतपात्रताम् । यातौ चेद् दुर्लभं तत्तु शोभान्यत्रापि विद्यते ॥ ४२३ ।। अयं विनिजिताशेष मोहमल्ल विजेव्यते । भात्वत्रैवेति वा तुङ्गा सजता नासिका कृता ॥ ४२४ ॥ कपोलफलको लक्षणी धात्रा वा विपुलौ कृतौ। तद्वक्त्रजसरस्वत्या विनोदेन विलेखितुम् ॥ ४२५ ॥ स्मितभेदाः सरस्वत्याः किं किं शुद्धाक्षरावलिः । शङ्कामिति सिताः स्निग्धाः घनास्तेनुद्विजाः समाः ४२६ वटबिम्बप्रवालादि परेषां भवतूपमा। नास्याधरस्य तेनार्य स्मर्यते नाधरोऽधरः ॥ ४२७ ॥ भवेचिबुकमन्येषां भाविश्मश्राकिमप्यदः। सदा श्यमिदं भावादित्यकारीव शोभनम् ॥ ४२८ ॥ क्षयी कलङ्की पकोत्थं रजसा दूषितं ततः। नैतद्वक्त्रस्य साधम्यं धराः स्मेन्दुसरोरुहे ॥ ४२९ ॥ ध्वनिश्चेनिर्गतस्तस्माहिग्यो विश्वार्थदर्पणः। पृथक सुकण्ठता तस्य कण्ठस्य किमु वर्ण्यते ॥ ४३०॥ स्पमानभुजाग्राभ्यां तौमयेन शिरसा समम् । त्रिकूटहाटकाद्रिवो सोऽभास्त्रिभुवनप्रभुः ॥ ४३१ ।। वाहू बहुतरं तस्य भातः स्माजानुलम्बिनौ । धात्री सन्धतुकामौ वा केयूरादिविभूषणौ ॥ १३२ ॥
व्यधायि वेधसा तस्य विस्तीर्ण वक्षसः स्थलम् । असम्बाध वसन्त्वस्मिबिति वा बहवः श्रियः ॥४३३॥ मेरुपर्वतके शिखरके समान सुशोभित होता था अथवा इस विचारसे ही ऊँचा उठ रहा था कि यद्यपि इनका ललाट राज्यपट्टको प्राप्त होगा परन्तु उससे ऊँचा तो मैं ही हूँ ॥ ४१६ ।। उनके इस ललाटपट्टपर धर्मपट्ट और राज्यपट्ट दोनोंसे पूजित लक्ष्मी सुशोभित होगी इस विचारसे ही मानो विधाताने उनका ललाट ऊँचा तथा चौड़ा बनाया था ॥ ४२० ॥ उनकी सुन्दर तथा कुटिल भौंहें वेश्याके समान सुशोभित हो रही थीं। 'कुटिल है। इसलिए क्या चन्द्रमाकी रेखा स होती अर्थात् अवश्य होती है ॥ ४२५ ।। शुभ अवयवोंका विचार करनेवाले लोग नेत्रोंकी दीर्घताको अच्छा कहते हैं सो मालूम पड़ता है कि भगवान्के नेत्र देखकर ही उन्होंने ऐसा विचार स्थिर किया होगा। यही उनके नेत्रोंकी स्तुति है ।। ४२२ ॥ यदि उनके कान समस्त शास्त्रोंकी पात्रताको प्राप्त थे तो उनका वर्णन ही नहीं किया जा सकता क्योंकि संसारमें यही एक बात दुर्लभ है । शोभा तो दूसरी जगह भी हो सकती है ।। ४२३ ।। 'ये भगवान्, सबको जीतनेवाले मोहरूपी मल्लको जीतेंगे इसलिए ऊँची नाक इन्हींमें शोभा दे सकेगी' ऐसा विचारकर ही मानो विधाताने उनकी नाक कुछ ऊँची बनाई थी॥ ४२४ ॥ उनके मुखसे उत्पन्न हुई सरस्वती विनोदसे कुछ लिखेगी यह विचार कर ही मानो विधाताने उनके कपोलरूपी पटिये चिकने और चौड़े बनाये थे ॥ ४२५ ।। उनके सफेद चिकने सघन और एक बराबर दांत यही शङ्का उत्पन्न करते थे कि क्या ये सरस्वतीके मन्द हास्यके भेद हैं अथवा क्या शुद्ध अक्षरोंकी पंक्ति ही हैं ॥ ४२६ ॥ बरगदका पका फल, विम्बफल और मूंगा आदि दूसरोंके अोठोंकी उपमा भले ही हो जावें परन्तु उनके अोठकी उपमा नहीं हो सकते
। अधर-ओंठ अधर-नीच नहीं कहलाता था ।। ४२७ ॥ अन्य लोगोंका चिबुक तो आगे होने वाली डाड़ीसे ढक जाता है परन्तु इनका चिबुक सदा दिखाई देता था इससे जान पड़ता है कि वह केवल शोभाके लिए ही बनाया गया था ।। ४२८ ॥ चन्द्रमा क्षयी है तथा कलङ्कसे युक्त है और कमल कीचड़से उत्पन्न है तथा रजसे दूषित है इसलिए दोनों ही उनके मुखकी सहशता नहीं धारण कर सकते ।। ४२६॥ यदि उनके कण्ठसे दर्पणके समान सब पदार्थोंको प्रकट करने वाली दिव्यध्वनि प्रकट होगी तो फिर उस कण्ठकी सुकण्ठताका अलग वर्णन क्या करना चाहिए ? ॥४३०॥ वे त्रिलोकीनाथ ऊंचाईके द्वारा शिरके साथ स्पर्धा करनेवाले अपने दोनों कन्धोंसे ऐसे सुशोभित होते थे मानो तीन शिखरोंवाला सुवर्णगिरि ही हो ॥४३१ ॥ घुटनों तक लम्बी एवं केयूर आदि आभूषणोंसे विभूषित उनकी दोनों भुजाएँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थी और ऐसी जान पड़ती थीं मानो पृथिवीको उठाना ही चाहती हों। ४३२ ।। बहुत-सी लक्ष्मियाँ
१-लम्बितौ ल।
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