________________
त्रिषष्टितम पर्व
२०३
तत्कालोचितनेपथ्या कल्पवल्लीव जङ्गमा। सितातपत्रवित्रासितार्कबालांशुमालिका ॥ ३९१ ॥ प्रकीर्णकपरिक्षेपप्रपञ्चितमहोदया। जनैः कतिपयैरेव प्रत्यासः परिष्कृता ॥ ३९२ ॥ साऽविशचन्द्ररेखाभा सभामिव विभावरीम् । कृतोपचारविनयां 'तामा सनमापयत् ॥ ३९३ ॥ नृपं साभिनिवेद्यात्मष्ट'स्वमावली क्रमात् । तत्फलान्यप्यबोधिष्ट राशः सावधिलोचनात् ॥३९॥ स्वर्गात्तदैव देवेन्द्राः सह देवश्चतुर्विधैः । स्वर्गावतारकल्याणं सम्प्राप्य समुपादयन् ॥ ३९५ ।। त्रिविष्टपेश्वरे गर्भे वर्द्धमाने महोदयः। अभ्यत्य नवमं मासं माता त्रिजगदीशितुः ॥ ३९६ ॥ मासान् पञ्चदश प्राप्तरत्नवृष्ट्याऽमरार्चना । शुचौ कृष्णचतुर्दश्यां याम्ययोगे निशात्यये ॥ ३९७ ॥ नन्दनं जगदानन्दसन्दोहमिव सुन्दरम् । असूतामलसद्बोधत्रितयोज्ज्वललोचनम् ॥ ३९८ ॥ शहाभेरीगजारातिघण्टारावावबोधिताः । जैन जन्मोत्सवं देवाः सम्भूय समवर्द्धयन् ॥ ३९९ ॥ सदा शची महादेवी प्रद्योतितदिगन्तरा । गर्भगेहं प्रविश्योछायानिद्रावशीकृताम् ॥ ४०॥ जिनेन्द्रजननीमैरां कुमारसहितां सतीम् । 'परीत्य प्रप्रणम्याच्या मायाविष्कृतबालका॥ ४०१॥ त्रिलोकमातुः पुरतो निवेश्य परमेश्वरम् । कुमारवरमादाय विश्वामरनमस्कृतम् ॥ ४०२॥ सूबाइयुगामीत्वा स्वपतेरकरोत्करे । ऐरावतगजस्कन्धमारोप्य मरुतां पतिः॥४०३॥ पुरेव पुरुदेवं तं सुराद्रेमस्तकार्पितम् । अभिषिच्याम्बुभिः क्षीरमहाम्भोनिधिसम्भवैः ॥ ४०४॥
उस समयके योग्य वस्त्राभूषण पहने और चलती-फिरती कल्पलताके समान राजसभाको प्रस्थान किया। उस समय वह अपने ऊपर लगाये हुए सफेद छत्रसे बालसूर्यकी किरणोंके समूहको भयभीत कर रही थी, ढुरते हुए चमरोंसे अपना बड़ा भारी अभ्युदय प्रकट कर रही थी, और पासमें रहनेवाले कुछ लोगोंसे सहित थी। जिस प्रकार रात्रिमें चन्द्रमाकी रेखा प्रवेश करती है उसी प्रकार उसने राजसभामें प्रवेश किया। औपचारिक विनय करनेवाली उस रानीको राजाने अपना श्राधा आसन दिया ।। ३६०-३६३ ।। उसने अपने द्वारा देखी हुई स्वप्नावली क्रम-क्रमसे राजाको सुनाई और अवधिज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले राजासे उनका फल मालूम किया ॥ ३६४ ॥ उसी समय चतुर्णिकायके देवोंके साथ स्वर्गसे इन्द्र आये और आकर गर्भावतारकल्याणक करने लगे ॥ ३६५ ।। उधर रानीके गर्भमें इन्द्र बड़े अभ्युदयके साथ बढ़ने लगा और इधर त्रिलोकीनाथकी माता रानी पन्द्रह माह तक देवोंके द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त करती रही। जब नवाँ माह आया
। ज्यष्ठ कृष्ण चतुर्दशीक दिन याम्ययोगमें प्रातःकालके समय पुत्र उत्पन्न किया। वह पुत्र ऐसा सुन्दर था मानो समस्त संसारके आनन्दका समूह ही हो । साथ ही अत्यन्त निर्मल मति-श्रतअवधिज्ञानरूपी तीन उज्ज्वल नेत्रोंका धारक भी था ॥ ३६६-३६८ ॥शङ्खनाद, भेरीनाद, सिंहनाद
और घंटानादसे जिन्हें जिन-जन्मकी सूचना दी गई है ऐसे चारों निकायोंके देवोंने मिल कर जिनेन्द भगवानका जन्मोत्सव बढ़ाया ।। ३६६॥ उस समय दिशाओंके मध्यको प्रकाशित करनेबाली महादेवी इन्द्राणीने गर्भ-गृहमें प्रवेश किया और कुमारसहित पतिव्रता जिनमाता ऐराको मायामयी निद्राने वशीभूत कर दिया। उसने पूजनीय जिनमाताको प्रदक्षिणा देकर प्रणाम किया
और एक मायामयी बालक उसके सामने रख कर जिन्हें सर्वदेव नमस्कार करते हैं ऐसे श्रेष्ठ कुमार जिन-बालकको उठा लिया तथा अपनी दोनों कोमल भुजाओंसे ले जाकर इन्द्रके हाथोंमें सौंप दिया। इन्दने उन्हें ऐरावत हाथीके कन्धे पर विराजमान किया और पहले जिस प्रकार भगवान आदिनाथको समेरु पर्वतके मस्तक पर विराजमान कर क्षीर-महासागरके जलसे उनका अभिषेक किया था इसी प्रकार इन्हें भी सुमेरु पर्वतके मस्तक पर विराजमान कर क्षीर-महासागरके जलसे इनका अभिषेक
१वामार्धासन-ल०। २ दृष्टां स्वमावली ग०, ख०, म०, ल०। ३ वर्धमानमहोदयः क०, १०। जैनजन्मोत्सवं क०, १०, ख०। जिनजन्मोत्सवं ग० ।५शची ल०,म०, क०, थ०। ६ परीत्य त्रिः प्रणम्यान्य मायाविष्कृतबालकम् स०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org