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महापुराणे उत्तरपुराणम्
निष्पन्नसारवस्तूनां निःशेषाणां निजोद्भव | स्थानेष्वनुपभोग्यत्वात्तदेवायान्ति सर्वतः ॥ ३७७ ॥ तत्रस्यैरेव भुज्यन्ते तानि दानेन चेद्वहिः । निर्यान्ति यान्तु तत्तादृक् त्यागिभोगिजनैश्चितम् ॥ ३७८ ॥ तत्र तादात्विकाः सर्वे तन्न दोषाय कल्पते । तत्पण्यात् सर्ववस्तूनि वर्द्धन्ते प्रत्यहं यतः ॥ ३७९ ॥ ब्रह्मस्थानोत्तरे भागे भुवोऽभूद्राजमन्दिरम् । महामेरुनिर्भ भास्वद्भद्रशालादिभूषितम् ॥ ३८० ॥ यथास्थाननिवेशेन परितो राजमन्दिरम् । उडूनि वो ज्वलद्रम्यहम्र्म्याण्यन्यानि वा बभुः ॥ ३८१ ॥ तद्राजधानीनाथस्य काश्यपान्वयभास्वतः । भूपस्याजितसेनस्य चित्तनेत्रप्रियप्रदा ॥ ३८२ ॥ 'बालचन्द्रादिसुस्वप्नदर्शिनी प्रियदर्शना । ब्रह्मकल्पच्युतं सूनुं विश्वसेनमजीजनत् ॥ ३८३ ॥ गन्धारविषयख्यात 'गान्धारनगरेशिनः । अजितञ्जयभूभर्तुरजितायां सुता गता ॥ ३८४ ॥ सनत्कुमारादैराख्या विश्वसेनप्रियाऽभवत् । श्रीह्रीत्यादिसंसेव्या नभस्ये कृष्ण सप्तमी ॥ ३८५ ॥ दिने भरणिनक्षत्रे यामिनीतुर्य भागगा । स्वमान् षोडश साऽऽद्राक्षीत्साक्षात्पुत्र ४ फलप्रदान् ॥ ३८६ ॥ दरनिद्रासमुद्भूतबोधा शुद्धसुवासना । तदनन्तरमैक्षिष्ट प्रविष्टं वदनं" गजम् ॥ ३८७ ॥ तदैवासौ दिवो देवस्ततो मेघरथाभिधः । तस्यामवतरद् गर्भे शुक्तौ मुक्तोदविन्दुवत् ॥ ३८८ ॥ तदैव यामभेरी च तत्स्वमशुभसूचिनी । जजृम्भे मधुरं सुप्तां बोधयन्तीव सुन्दरीम् ॥ ३८९ ॥ पद्मिनीव तदाकर्ण्य विकसन्मुखपङ्कजा । शय्यागृहात्समुत्थाय कृतमङ्गलमज्जना ॥ ३९० ॥
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वनोंसे इन्द्रका नन्दनवन भी जीता जाता था ॥ ३७६ ॥ संसारमें जितनी श्रेष्ठ वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं उन सबका अपनी उत्पत्ति स्थानमें उपभोग करना अनुचित है इसलिए सब जगहकी श्रेष्ठ वस्तुएँ उसी नगरमें आती थीं और वहाँ के रहनेवाले ही उनका उपभोग करते थे । यदि कोई पदार्थ वहाँ से बाहर जाते थे तो दानसे ही बाहर जा सकते थे इस तरह वह नगर पूर्वोक्त त्यागी तथा भोगी जनोंसे व्याप्त था ।। ३७७-३७८ ।। उस नगरके सब लोग तादात्विक थे- सिर्फ वर्तमानकी ओर दृष्टि रखकर जो भी कमाते थे उसे खर्च कर देते थे। उनकी यह प्रवृत्ति दोषाधायक नहीं थी क्योंकि उनके पुण्यसे सभी वस्तुएँ प्रतिदिन बढ़ती रहती थीं ॥ ३७६ ॥ उस नगर में ब्रह्मस्थानके उत्तरी भूभागमें राजमन्दिर था जो कि देदीप्यमान भद्रशाल - उत्तमकोट आदिसे विभूषित था और भद्रशाल आदि वनों से सुशोभित महामेरुके समान जान पड़ता था ॥ ३८० ॥ उस राजमन्दिरके चारों ओर यथा-. योग्य स्थानों पर जो अन्य देदीप्यमान सुन्दर महल बने हुए थे वे मेरुके चारों ओर स्थित नक्षत्रों के समान सुशोभित हो रहे थे ।। ३८१ ।। उस हस्तिनापुर राजधानीमें काश्यपगोत्री देदीप्यमान राजा अजितसेन राज्य करते थे । उनके चित्त तथा नेत्रोंको आनन्द देनीवाली प्रियदर्शना नामकी स्त्री थी । उसने बालचन्द्रमा आदि शुभ स्वप्न देखकर ब्रह्मस्वर्गसे च्युत हुए विश्वसेन नामक पुत्रको उत्पन्न किया था ।। ३८२-३८३ ।। गन्धार देशके गान्धार नगरके राजा अजितञ्जयके उनकी अजिता रानी से सनत्कुमार स्वर्गसे आकर ऐरा नामकी पुत्री हुई थी और यही ऐरा राजा विश्वसेनकी प्रिय रानी हुई थी । श्री ही धृति आदि देवियाँ उसकी सेवा करती थीं। भादों बदी सप्तमीके दिन भरणी नक्षत्रमें रात्रिके चतुर्थ भागमें उसने साक्षात् पुत्र रूप फलको देनेवाले सोलह स्वप्न देखे || ३८४-३८६ ॥ अल्पनिद्रा के बीच जिसे कुछ-कुछ ज्ञान प्राप्त हो रहा है तथा जिसके मुखसे शुद्ध सुगन्धि प्रकट हो रही है ऐसी रानी ऐराने सोलह स्वप्न देखनेके बाद अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ एक हाथी देखा ॥ ३८७ ।। उसी समय मेघरथका जीव स्वर्गसे च्युत होकर रानी ऐराके गर्भमें आकर उस तरह अवतीर्ण हो गया जिस तरह कि शुक्ति में मोती रूप परिणमन करनेवाली पानीकी बूँद अवतीर्ण होती है ॥ ३८८ ॥ उसी समय सोती हुई सुन्दरीको जगानेके लिए ही मानो उसके शुभ स्वप्नोंको सूचित करनेवाली अन्तिम पहरकी भेरी मधुर शब्द करने लगी ॥ ३८६ ॥ उस भेरीको सुनकर रानी ऐराका मुख-कमल, कमलिनीके समान खिल उठा। उसने शय्याग्रहसे उठकर मङ्गल-खान किया,
१ बाला चन्द्रादि-ल० । २ गन्धार क०, ग०, म०, ल० । ३ सप्तमे ल० । साक्षात्सत्य - ल०, ख०, ग०, म० । ५ वदने व० । ६ स्वातौ ल० ।
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