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महापुराणे उत्तरपुराणम् आमय रसिकामूलात्पर्यन्ते विरसास्ततः । पीड्यन्ते सुतरां यन्नरिक्षवो नितदुर्जनाः ॥ ३५४॥ शब्दनिष्पादने लोपः प्रध्यसः पापवृतिषु । दाहो विरहिवर्गेषु वेधः। श्रवणयोद्धये ॥ ३५५॥ दण्डो दारुषु शस्त्रेषु निविंशोक्तिस्तपस्विषु । निर्धनत्वं विदानत्वं महापाये न दन्तिषु ॥ ३५६ ।। सुरतेषु विलज्जत्वं कान्तकन्यासु याचनम् । तापोऽनलोपजीवेषु मारण रसवादिषु ॥ ३५७ ॥ नाकाण्डमृत्यवः सन्ति नापि दुर्मार्गगामिनः । मुक्त्वा विग्रहिणो मुक्तमारणान्तिकविग्रहात् ॥ ३५८ ॥ प्राच्यवृत्तिविपर्यासः संयमग्राहिणोऽभवत् । न षट्कर्मसु कस्यापि वर्णानां दुर्णयद्विषाम् ॥ ३५९ ॥ शालयो लीलया वृद्धिमुपेताः सर्वतपिणः । विनम्राः फलसम्प्राप्ती भेजुः सद्भुमिपोपमाम् ॥ ३६० ॥ क्षरन्ति वारिदाः काले दुहते धेनवः सदा । फलन्ति भूरुहाः सर्वे पुष्पन्ति च लतास्तताः ॥ ३६१ ॥ नित्योत्सवाः निरातङ्का निर्बन्धा धनिकाः प्रजाः। निर्मला नित्यकर्माणो नियुक्ताः स्वासु वृशिषु ॥३६२॥
लताओंमें लाल पल्लव थे, जिस प्रकार स्त्रियाँ मन्द मन्द मुसकानसे सहित होती हैं उसी प्रकार वहाँकी लताएँ फूलोंसे सहित थीं, जिस प्रकार स्त्रियाँ तन्वङ्गी-पतली होती हैं उसी प्रकार वहाँकी लताएँ भी तन्वडी-पतली थीं. जिस प्रकार त्रियाँ काले काले केशोंसे युक्त होती हैं उसी प्रकार वहाँकी लताएँ भी काले काले भ्रमरोंसे युक्त थीं, और जिस प्रकार स्त्रियाँ सत्पत्र-उत्तमोत्तम पत्ररचनाओंसे सहित होती हैं उसी प्रकार वहाँकी लताएँ भी उत्तमोत्तम पत्रोंसे युक्त थी॥ ३५३ ।। जो मूलसे लेकर मध्यभाग तक रसिक हैं और अन्तमें नीरस हैं ऐसे दुर्जनोंको जीतनेवाले ईख ही वहाँपर यन्त्रों द्वारा अच्छी तरह पीडे जाते थे। ३५४॥ वहाँपर लोप-अनुबन्ध आदिका अदर्शन शब्दोंके सिद्ध करने में होता था अन्य दूसरेका लोप-नाश नहीं होता था, नाश पापरूप प्रवृत्तियोंका होता था, दाह विरही मनुष्योंमें होता था और बेध अर्थात् छेदना दोनों कानोंमें होता था, दूसरी जगह नहीं ।। ३५५ ॥ दण्ड केवल लकड़ियोंमें था । वहाँ के प्रजामें दण्ड अर्थात् जुर्माना नहीं था, निस्त्रिंशता अर्थात् तीक्ष्णता केवल शस्त्रोंमें थी वहाँकी प्रजामें निस्त्रिंशता अर्थात् दुष्टता नहीं थी, निर्धनता अर्थात् निष्परिग्रहता तपस्वियोंमें ही थी वहाँ के मनुष्योमें निर्धनता अर्थात् गरीबी नहीं थी और विदानत्व अर्थात् मदका अभाव, मद सूख जानेपर केवल हाथियोंमें ही था वहाँकी प्रजामें विदानत्व अर्थात् दान देनेका अभाव नहीं था॥ ३५६ ॥ निर्लज्जपना केवल संभोग क्रियाओंमें था,याचना केवल सुन्दर कन्याओंकी होती थी, ताप केवल अग्निसे आजीविका करनेवालों में था और मारण केवल रसवादियोंमें था-रसायन आदि बनानेवालोंमें था ।। ३५७ ॥ वहाँ कोई असमयमें नहीं मरते थे, कोई कुमार्गमें नहीं चलते थे और मुक्त जीवों तथा मारणान्तिक समुद्घात करनेवालोंको छोड़कर अन्य कोई विग्रही-शरीर रहित तथा मोड़ासे रहित नहीं थे ॥ ३५८ ।। मिथ्या नयसे द्वेष रखनेवाले चारों ही वर्णवाले जीवोंके देवपूजा आदि छह कर्मोमें कहीं प्राचीन प्रवृत्तिका उल्लंघन नहीं था अर्थात् देवपूजा आदि प्रशस्त कार्योंकी जैसी प्रवृत्ति पहलेसे चली आई थी उसीके अनुसार सब प्रवृत्ति करते थे। यदि प्राचीन प्रवृत्तिके क्रमका उल्लंघन था तो संयम ग्रहण करनेवालेके ही था अर्थात् संयमी मनुष्य ही पहलेसे चली आई असंयमरूप प्रवृत्तिका उल्लंघनकर संयमकी नई प्रवृत्ति स्वीकृत करता था ॥ ३५६ ॥ लीलापूर्वक वृद्धिको प्राप्त हुए एवं सबको सन्तुष्ट करनेवाले धान्यके पौधे, फल लगनेपर अत्यन्त नम्र हो गये थे-नीचेको झुक गये थे अतः किसी अच्छे राजाकी उपमाको धारण कर रहे थे ।। ३६० ॥ वहाँ मेघ समयपर पानी बरसाते थे, गायें सदा दूध देती थीं, सब वृक्ष फलते थे और फैली हुई लताएँ सदा पुष्पोंसे युक्त रहती थीं ॥३६१ ॥ वहाँकी प्रजा नित्योत्सव थी अर्थात् उसमें निरन्तर उत्सव होते रहते थे. निरातङ्क थी उसमें किसी प्रकारकी बीमारी नहीं होती थी, निर्बन्ध थी हठ रहित थी, धनिक थी, निर्मल थी, निरन्तर उद्योग करती थी और अपने अपने कर्मोमें लगी रहती थी।। ३६२॥
१ वे ख० । २ भवेत् ख०, ०। ३ निर्मदा क०, ख०, ध० ।
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