________________
१६८
महापुराणे उत्तरपुराणम् वत्से धेनोरिव स्नेहो यः सधर्मण्यकृत्रिमः । तद्वात्सल्यं प्रशंसन्ति प्रशंसापारमाश्रिताः ॥ ३३०॥ इत्येतानि समस्तानि व्यस्तानि च जिनेश्वराः । कारणान्यामनन्त्यन्यनाम्नः षोडश बन्धने ॥३३॥ एतद्भावनया बद्धवा तीर्थकृनाम निर्मलम् । येन त्रैलोक्यसक्षोभस्तत् स मेघरथो मुनिः ॥ ३३२॥ क्रमेण विहरन्देशान् प्राप्तवान् श्रीपुरावयम् । श्रीषेणस्तत्पतिस्तस्मै दत्त्वा भिक्षां यथोचितम् ॥ ३३३॥ पश्चा'नन्दपुरे नन्दनाभिधानश्च भक्तिमान् । तथैव पुण्डरीकिण्यां सिंहसेनश्च शुद्धक ॥ ३३४ ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां पर्ययान् बहून् । सम्यग्वर्द्धयते प्रापुः पञ्चाश्चर्याणि पार्थिवाः ॥ ३३५ ॥ संयमस्य परां कोटिमारुह्य स मुनीश्वरः । दृढो दृढरथेनामा नभस्तिलकपर्वते ॥ ३३६ ॥ मासमात्र परित्यज्य शरीर शान्तकल्मषः । प्रायोपगमनेनाप्तः प्राणान्तेनाहमिन्द्रताम् ॥ ३३७ ॥ एतौ तत्र त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमजीवितौ । विधूज्ज्वलतरारत्निशरीरौ शुक्लेश्यकौ ॥ ३३८ ॥ मासैः षोडशभिः सार्धमा सैनिःश्वासमीयुषौ । त्रयस्त्रिंशत्सहस्राब्दैराहतामृतभोजनौ ॥ ३३९ ॥ निःप्रवीचारसौख्याब्यौ लोकनाड्यन्तराश्रित- स्वगोचरपरिच्छेदप्रमाणावधिलोचनौ ॥ ३४०॥ तत्क्षेत्रमितवीर्याभाविक्रियौ सुचिरं स्थितौ । समनन्तरजन्माप्य मोक्षलक्ष्मीसमागमौ ॥ ३४१॥ अथास्मिन् भारते वर्षे विषयः कुरुजाङ्गलः। आर्यक्षेत्रस्य मध्यस्थः सर्वधान्याकरो महान् ॥३४२॥ तत्र ताम्बूलवल्यन्ताः सफलाः क्रमुकद्माः । पुन्दारदारकाश्लेषसुखं प्रख्यापयन्ति वा ॥ ३४३ ॥ महाफलप्रदास्तुङ्गा बद्धमूला मनोहराः । सुराजवद्विराजन्ते सत्पत्राश्चोचभूरुहाः ॥ ३४४ ॥
और बछड़ेमें गायके समान सहधर्मी पुरुषमें जो स्वाभाविक प्रेम है उसे प्रशंसाके पारगामी पुरुष वात्सल्य भावना कहते हैं। ३३०॥ श्री जिनेन्द्रदेव इन सोलह भावनाओंको सब मिलकर अथवा अलग अलग रूपसे तीर्थंकर नामकर्मके बन्धका कारण मानते हैं ॥ ३३१॥ मेघरथ मुनिराजने इन भावनाओंसे उस निर्मल तीर्थंकर नामकर्मका बन्ध किया था कि जिससे तीनों लोकोंमें क्षोभ हो जाता है ।। ३३२ ।। वे क्रम-क्रमसे अनेक देशोंमें विहार करते हुए श्रीपुर नामक नगरमें गये । वहाँ के राजा श्रीषेणने उन्हें योग्य विधिसे आहार दिया। इसके पश्चात् नन्दपुर नगरमें नन्दन नामके भक्तिवान् राजाने आहार दिया और तदनन्तर पुण्डरीकिणी नगरीमें निर्मल सम्यग्दृष्टि सिंहसेन राजाने आहार कराया। वे मुनिराज ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपकी अनेक पर्यायोंको अच्छी तरह बढ़ा रहे थे। उन्हें दान देकर उक्त सभी राजाओंने पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ ३३३-३३५. ॥ अत्यन्त धीर वीर मेंघरथने दृढ़रथके साथ-साथ नभस्तिलक नामक पर्वतपर श्रेष्ठ संयम धारणकर एक महीने तक प्रायोपगमन संन्यास धारण किया और अन्तमें शान्त परिणामोंसे शरीर छोड़कर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया ॥ ३३६-३३७ ॥ वहाँ इन दोनोंकी तैंतीस सागरकी आयु थी। चन्द्रमाके समान उज्ज्वल एक हाथ ऊँचा शरीर था, शुक्ल लेश्या थी, वे साढ़े सोलह माहमें एक बार श्वास लेते थे, तैंतीस हजार वर्ष बाद एक बार अमृतमय आहार ग्रहण करते थे, प्रवीचाररहित सुखसे युक्त थे, उनके अवविज्ञान रूपी नेत्र लोकनाडीके मध्यवर्ती योग्य पदार्थोंको देखते थे, उनकी शक्ति दीप्ति तथा विक्रियाका क्षेत्र भी अवधिज्ञानके क्षेत्रके बराबर था। इस प्रकार वे वहाँ चिरकालतक स्थित रहे। वहाँसे हो एक जन्म धारणकर वे नियमसे मोक्षलक्ष्मीका समागम प्राप्त करेंगे ॥३३८-३४१॥
अथानन्तर-भरत क्षेत्र में एक कुरुजाङ्गल नामका देश है, जो आर्य क्षेत्रके ठीक मध्यमें स्थित है, सब प्रकार के धान्योंका उत्पत्तिस्थान है और सबसे बड़ा है ॥ ३४२ ॥ वहाँ पर पानकी बेलोंसे लिपटे एवं फलोंसे युक्त सुपारीके वृक्ष ऐसे जान पड़ते हैं मानो पुरुष और बालकोंके आलिंगनका सुख ही प्रकट कर रहे हों ।। ३४३ ॥
___वहाँ चोचजातिके वृक्ष किसी उत्तम राजाकेसमान सुशोभित होते हैं क्योंकि जिस प्रकार उत्तम राजा महाफल-भोगोपभोगके उत्तम पदार्थ प्रदान करता है उसी प्रकार चोच जातिके वृक्ष महा
१ यथोचिताम् ल०, ख०, म०। २-दत्तपुरे म० ल० । ३ प्रापन् क०, ख०, घ०। ४ दृढरथेनाम। -हदरथेन अमा सह । दृढरथो नामा ल० ।५ सार्द्धमासनिःश्वास ल०। ६ क्षेत्रे ख०, ग०।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org