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त्रिषष्टितम पर्व
१६७ अथवाऽहन्मते नेदं चेत्सर्व युक्तमित्यसत्' । आग्रहः क्वापि तस्यागः सा स्यानिर्विचिकित्सता ॥ ३१६॥ सत्त्ववनासमानेषु बहुदुर्णयवर्त्मसु । युक्तिभावाद्विमोहत्वमाहुईष्टेरमूढताम् ॥ ३१७ ॥ वृद्धिक्रियात्मधर्मस्य भावनाभिः क्षमादिभिः । अभीष्टं दर्शनस्याङ्ग सुरम्भिरुपबृंहणम् ॥ ३१८॥ धर्मध्वंसनिमित्तेषु या कषायोदयादिषु । धर्मव्यवनसंरक्षा स्वान्ययोः सा स्थितिक्रिया ॥ ३१९ ॥ जिनप्रणीतसद्धर्मामृतनित्यानुरागता । वात्सल्य मार्गमाहात्म्यभावना स्यात्प्रभावना ॥ ३२० ॥ ज्ञानादिषु च तद्वत्सु चादरो निःकषायता । तवयं विनयस्याहुः सन्तः सम्पातां स्फुटम् ॥ ३२१॥ प्रतशील"निविष्टेषु भेदेषु निरवद्यता। शीलवतानतीचारः प्रोक्तः सूक्तविदां वरैः ॥ ३२२ ॥ ज्ञानोपयोगाऽभीक्ष्णोऽसौ या नित्यश्रुतभावना । संवेगः संस्तेदुःखाद् दुस्सहाग्नित्यभीरता ॥३२३ ॥ आहारादित्रयोत्सर्गः पात्रेभ्यस्त्याग इज्यते । यथागमं यथावीर्य कायक्लेशस्तपो भवेत् ॥ ३२४॥ कदाचिन्मुनिसहस्य बाह्याभ्यन्तरहेतुभिः । सन्धारणं समाधिः स्यात्प्रत्यूहे तपसः सति ॥ ३२५ ॥ गुणिनां निरवयेन विधिना दुःखनितिम् । वैयावृत्य क्रिया प्रायः साधनं तपसः परम् । ३२६ ॥ जिनेषु गणनाथेषु बहुशास्त्रेषु चागमे । भाव"शुद्धयानुरागः स्याद्भक्तिः कायादिगोचरा ॥ ३२७ ॥ सामायिकादिषट्कस्य यथाकालं प्रवर्तनम् । भवेदावश्यकाहानिर्यथोकविधिना मुनेः ॥ ३२८ ॥
"ज्ञानेन तपसा जैनपूजयाऽन्येन चापि वा। धर्मप्रकाशनं प्राज्ञाः प्राहुर्मार्गप्रभावनाम् ॥ ३२९॥ करना निर्विचिकित्सा नामका अङ्ग है ॥३१५।। यदि यह बात अर्हन्तके मनमें न होती तो सब ठीक होता इस प्रकारका आग्रह मिथ्या आग्रह है उसका त्याग करना सो निर्विचिकित्सा अङ्ग है ॥३१६।। जो वास्तवमें तत्त्व नहीं है किन्तु तत्त्वकी तरह प्रतिभासित होते हैं ऐसे बहुतसे मिथ्यानयके मार्गोंमें 'यह ठीक है। इस प्रकार मोहका नहीं होना अमूढ़ दृष्टि अङ्ग कहलाता है ॥ ३१७ ॥ क्षमा आदिकी भावनाओंसे आत्म धर्मकी वृद्धि करना सो सम्यग्दृष्टियोंको प्रिय सम्यग्दर्शनका उपबृंहण नामका अङ्ग है ॥ ३१८ ।। कषायका उदय आदि होना धर्मनाशका कारण है। उसके उपस्थित होनेपर अपनी या दूसरेकी रक्षा करना अर्थात् दोनोंको धर्मसे च्युत नहीं होने देना सो स्थितिकरण अङ्ग है ॥३१६ ॥ जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे हुए समीचीन धर्मरूपी अमृतमें निरन्तर अनुराग रखना सो वात्सल्य अङ्ग है और मार्गके माहात्म्यकी भावना करना-जिन-मार्गका प्रभाव फैलाना सो प्रभावना अङ्ग है ॥ ३२०॥ सम्यग्ज्ञानादि गुणों तथा उनके धारकोंका आदर करना और कषाय रहित परिणाम रखना इन दोनोंको सज्जन पुरुष विनयसम्पन्नता कहते हैं । ३२१ ॥ व्रत तथा शीलसे युक्त चारित्रके भेदोंमें निर्दोषता रखना-अतिचार नहीं लगाना, शास्त्रके उत्तमज्ञाता पुरुषोंके द्वारा शीलवतानतीचार नामकी भावना कही गई है।॥ ३२२ । निरन्तर शास्त्रकी भावन अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। संसारके दुःसह दुःखसे निरन्तर डरते रहना संवेग कहलाता है ।। ३२३ ।। पात्रोंके लिए आहार, अभय और शास्त्रका देना त्याग कहलाता है। आगमके अनुकूल अपनी शक्तिके अनुसार कायक्लेश करना तप कहलाता है ।। ३२४ ॥ किसी समय बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे मुनिसंघके तपश्चरणमें विघ्न उपस्थित होनेपर मुनिसंघकी रक्षा करना साधुसमाधि है ॥ ३२५ ।। निर्दोष विधिसे गुणियोंके दुख दूर करना यह तपका श्रेष्ठ साधन वैयावृत्त्य है ॥ ३२६ ।। अरहन्त देव, आचार्य, बहुश्रुत तथा आगममें मन वचन कायसे भावोंकी शुद्धतापूर्वक अनुराग रखना क्रमसे अईक्ति, प्राचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति और प्रवचनभक्ति भावना है ।। ३२७ ॥ मुनिके जो सामायिक आदि छह आवश्यक बतलाये हैं उनमें यथा समय आगमके कहे अनुसार प्रवृत्त होना सो आवश्यकापरिहाणि नामक भावना है। ३२८ ॥ ज्ञानसे, तपसे, जिनेन्द्रदेवकी पूजासे, अथवा अन्य किसी उपायसे धर्मका प्रकाश फैलानेको विद्वान् लोग मार्गप्रभावना कहते हैं । ३२६ ॥
१-मित्ययम् ख०, ग०। २ युक्तिर्भवे-म० । ३ कषायोपपादिषु ल०। ४ भावनं क०, घ०, म.। ५ निबद्धषु ल०।६ प्राहुः ल०। ७ भावः शुद्धयानु-ख.। . दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः । प्रात्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपायेऽमृतचन्द्रसूरेः।
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