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त्रिषष्टितमं पर्व
हास्तिनाख्या पुरी तस्य शुभा नाभिरिवाबभौ । भृशं देशस्य देहस्य महती मध्यवर्तिनी ॥ ३६३॥ भूरिनीरभवानेकप्रसू नोदितभूतिभिः । तिसृभिः परिखाभिस्तन्नगरं परिवेष्टितम् ॥ ३६४ ॥ विभाति गोपुरोपेतद्वाराट्टालकपङ्क्तिभिः । वप्रप्राकारदुर्लङ्घ्यं मुरजैः कपिशीर्षकैः ॥ ३६५ ॥ इन्द्रकोशैर्ब्रहद्यन्त्रैयुक्तं देवपथादिभिः । 'महाक्षुद्राग्रिमद्वारैर्वीथिभिर्बहुभिश्च तत् ॥ ३६६ ॥ राजमार्ग विराजन्ते सारवस्तुसमन्विताः । स्वर्गापवर्गमार्गाभाः सञ्चरच्चारुवृत्तयः ॥ ३६७ ॥ न नेपथ्यादिभिर्भेदस्तद्भुवां सारवस्तुजैः । कुलजातिवयोवर्णवचोयोधादिभिर्मिंदा ॥ ३६८ ॥ तत्पुर्या सौधकूटाग्रबद्धध्वजनिरोधनात् । नातपस्य प्रवेशोऽस्ति विघनार्कदिनेष्वपि ॥ ॥ ३६९ ॥ पुष्पाङ्गरागधूपादिसौगन्ध्यान्धीकृतालिभिः । भ्रमन्निस्तत्र खे प्रावृट्शङ्का गृहशिखण्डिनाम् ॥ ३७० ॥ रूपलावण्यकान्त्यादिगुणैर्युवतिभिर्युताः । युवानस्तैश्च तास्तत्र तदन्योन्यसुखावहाः ॥ ३७१ ॥ मदनोद्दीपनद्रव्यैनिसर्गप्रेमतो गुणैः । कान्त्यादिभिश्च दम्पत्योः प्रीतिस्तत्र निरन्तरम् ॥ ३७२ ॥ अहिंसालक्षणो धर्मो यतयो विगतस्पृहाः । देवोऽर्हचैव निर्दोषस्तत्सर्वेऽप्यत्र धार्मिकाः ॥ ३७३ ॥ यत्किञ्चित् सञ्चितं पापं पञ्चसूनादिवृत्तिभिः । पात्रदानादिभिः सचस्तहिलम्पन्त्युपासकाः ॥ ३७४ ॥ न्याय्यो नृपः प्रजा धर्म्या ४ निर्जन्तु क्षेत्रमन्वहम् । स्वाध्याय स्तत्पुरं तस्मान्न त्यजन्ति यतीश्वराः ॥ ३७५ ॥ नानापुष्पफलाननमहीजैर्नन्दनैर्वनैः । नन्दनं व विजीयेत तत्पुरोपान्तवर्तिभिः ॥ ३७६ ॥
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जिस प्रकार शरीरके मध्यमें बड़ी भारी नाभि होती है उसी प्रकार उस कुरुजाङ्गल देशके मध्य में एक हस्तिनापुर नामकी नगरी है ।। ३६३ || अगाध जलमें उत्पन्न हुए अनेक पुष्पों द्वारा जिनकी शोभा बढ़ रही है ऐसी तीन परिखाओंसे वह नगर घिरा हुआ था ।। २६४ ।। धूलिके ढेर और कोटकी दीवारोंसे दुर्लङ्घ्य वह नगर गोपुरोंसे युक्त दरवाजों, अट्टालिकाओंकी पंक्तियों तथा बन्दरोंके शिर जैसे आकारवाले बुरजोंसे बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहा था ।। ३६५ ।। वह नगर, राजमार्गमें ही मिलने वाले डरानेके लिए बनाये हुए हाथी, घोड़े आदिके चित्रों तथा बहुत छोटे दरवाजों वाली बहुत-सी गलियोंसे युक्त था ।। ३६६ ।। जो सार वस्तुओंसे सहित हैं तथा जिनमें सदाचारी मनुष्य इधर से उधर टहला करते हैं ऐसे वहाँ के राजमार्ग स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग के समान सुशोभित होते थे ।। ३६७ ।। वहाँ उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों में श्रेष्ठ वस्तुओंसे उत्पन्न हुए नेपथ्य - वस्त्राभूषणादि से कुछ भी भेद नहीं था केवल कुल, जाति, अवस्था, वर्णं, वचन और ज्ञानकी अपेक्षा भेद था ॥ ३६८ ॥ उस नगर में राजभवनोंके शिखरोंके प्रभाग पर जो ध्वजाएँ फहरा रही थीं उनसे रुक जानेके कारण जब सूर्यपर बादलोंका आवरण नहीं रहता उन दिनोंमें भी धूपका प्रवेश नहीं हो पाता या ।। ३६६ ॥ पुष्प, अङ्गराग तथा धूप आदिकी सुगन्धिसे अन्धे होकर जो भ्रमर आकाशमें इधर-उधर उड़ रहे थे उनसे घर मयूरोंको वर्षाऋतुकी शङ्का हो रही थी ।। ३७० ।। वहाँ रूप, लावण्य तथा कान्ति आदि गुणोंसे युक्त युवक युवतियोंके साथ और युवतियाँ युवकों के साथ रहती थीं तथा परस्पर एक दूसरेको सुख पहुँचाती थीं ॥ ३७२ ॥ वहाँ कामको उद्दीपित करनेवाले पदार्थ, स्वाभाविक प्रेम, तथा कान्ति आदि गुणोंसे स्त्री-पुरुषोंमें निरन्तर प्रीति बनी रहती थी ॥ ३७२ ॥ वहाँ धर्म अहिंसा रूप माना जाता था, मुनि इच्छारहित थे, और देव रागादि दोषोंसे रहित अर्हन्त ही माने जाते थे इसलिए वहाँ के सभी मनुष्य धर्मात्मा थे ।। ३७३ ।। वहाँ के श्रावक, चक्की चूला आदि पाँच कार्योंसे जो थोड़ा-सा पाप संचित करते थे उसे पात्रदान आदिके द्वारा शीघ्र ही नष्ट कर डालते थे । ३७४ ॥ वहाँका राजा न्यायी था, प्रजा धर्मात्मा थी, क्षेत्र जीवरहित - प्रासुक था, और प्रतिदिन स्वाध्याय होता रहता था इसलिए मुनिराज उस नगरको कभी नहीं छोड़ते थे ।। ३७५ || जिनके वृक्ष अनेक पुष्प और फलोंसे नम्र हो रहे हैं तथा जो सबको आनन्द देनेवाले हैं ऐसे उस नगरके समीपवर्ती
१ महाक्षुद्रापि सद्द्द्वारैः ख० । महाक्षुद्राणि मद्द्द्वारैः म०, ग० । महाक्षुद्रादिसद्द्द्वारै: क०, घ० । २ विघ्नार्क दिनेष्वपि (१) ल० । ३ तत्तेऽन्योन्यसुखावहाः क०, घ०, म० । धत्तेऽन्योऽन्यसुखावहः ग० । सुखावहं ख० । ४ निर्जन्तुः ल० । ५ खतानम्र-ल० ।
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