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महापुराणे उत्तरपुराणम्
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गर्भाधानादिनिर्वाणपर्यन्ताः प्रथमक्रियाः । प्रोक्ताः 'प्राक्तानिपञ्चाशत्सम्यग्दर्शनशुद्धिषु ॥ ३०३ ॥ दीक्षान्वय क्रियाश्चाष्टचत्वारिंशत् प्रकीर्तिता । अवतारादिक र निर्वृत्यन्ता निर्वाणसाधिकाः ॥ ३०४ ॥ सद्गृहित्वादिसिद्धयन्ताः सप्त कर्त्रन्वयक्रियाः । सम्यक् स्वरूपमेतासां विधानं फलमप्यदः ॥ ३०५ ॥ तमुपासक सद्धर्म श्रुत्वा घनरथोदितम् । नत्वा मेघरथो भक्त्या मुक्त्यै शान्तान्तरङ्गकः ॥ ३०६ ॥ शरीरभोगसंसारदौः स्थित्यं चिन्तयन्मुहुः । संयमाभिमुखो राज्ये तिष्ठ ेत्यनुजमादिशत् ॥ ३०७ ॥ त्वया राज्यस्य यो दोषो दृष्टोऽदर्शि मयाऽप्यसौ । त्याज्यं तच्चेषु गृहीत्वाऽपि प्रागेवाग्रहणं वरम् ॥ ३०८ ॥ प्रक्षालनादि पकस्य दूरादस्पर्शनं "वरम् । इति तस्मिंस्तदादानविमुखत्वमुपागते ॥ ३०९ ॥ सुताय मेघसेनाय दवा राज्यं यथाविधि । सहस्त्रैः सप्तभिः सार्द्धं सानुजो जगतीपतिः ॥ ३१० ॥ नृपैः दीक्षां समादाय क्रमादेकादशाङ्गवित् । प्रत्ययास्तीर्थकुश्वाम्नः षोडशैतान 'भावयत् ॥ ३११ ॥ जिनोपदिष्टनिर्मन्थमोक्षमार्गे रुचिर्मता । निःशङ्कतादिकाष्टाङ्गा विशुद्धिदर्शनस्य सा ॥ ३१२ ॥ मार्गेऽस्मिन्वर्तमानस्य यदुक्तं तद्भवेन वा । इति शङ्कापरित्यागं शङ्कारहिततां विदुः ॥ ३१३ ॥ द्विलोकभोगमिथ्यादृक्काङ्क्षाव्यावृत्तिरागमे । द्वितीयमङ्गमाख्यातं वि' शुद्धिदर्शनाश्रिता ॥ ३१४ ॥ देहाशुचिसद्भावमवगम्य शुचीति यः । सङ्कल्पस्तस्य सन्त्यागः सा स्यानिर्विचिकित्सता ॥ ३१५ ॥
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कि 'श्रावकोंकी क्रियाएँ गर्भान्वय, दीक्षान्वय और क्रियान्वयकी अपेक्षा तीन प्रकारकी हैं इनकी संख्या इस प्रकार है ।। ३०२ ।। पहली गर्भान्वय क्रियाएँ गर्भाधानको आदि लेकर निर्वाण पर्यन्त होती हैं इनकी संख्या त्रेपन है, ये सम्यग्दर्शनकी शुद्धताको धारण करनेवाले जीवोंके होती हैं तथा इनका वर्णन पहले किया जा चुका है ।। ३०३ ॥ अवतारसे लेकर निर्वाण पर्यन्त होनेवाली दीक्षान्वय क्रियाएँ अड़तालीस कही गई हैं। ये मोक्ष प्राप्त कराने वाली हैं ॥ ३०४ || और सद्गृहित्वको आदि लेकर सिद्धि पर्यन्त सात कर्त्रन्वय क्रियाएँ हैं। इन सबका ठीक-ठीक स्वरूप यह है, करनेकी विधि यह है तथा फल यह है । इस प्रकार धनरथ तीर्थंकरने विस्तारसे इन सब क्रियाओं का वर्णन किया । इस तरह राजा मेघरथने घनरथ तीर्थकरके द्वारा कहा हुआ श्रावक धर्मका वर्णन सुन कर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और मोक्ष प्राप्त करनेके लिए अपने हृदयको अत्यन्त शान्त बना लिया ।। ३०५ - ३०६ ॥ शरीर, भोग और संसारकी दुर्दशाका बार-बार विचार करते हुए वे संयम धारण करनेके सम्मुख हुए। उन्होंने छोटे भाई दृढ़रथसे कहा कि तुम राज्य पर बैठो। परन्तु दृढ़रथने उत्तर दिया कि आपने राज्यमें जो दोष देखा है वही दोष मैं भी तो देख रहा हूँ। जब कि यह राज्य ग्रहण कर बादमें छोड़नेके ही योग्य है तब उसका पहलेसे ही ग्रहण नहीं करना अच्छा है । लोकमें कहावत है कि कीचड़को धोनेकी अपेक्षा उसका दूरसे ही स्पर्श नहीं करना अच्छा है । ऐसा कह कर जब दृढ़रथ राज्य ग्रहण करनेसे विमुख हो गया तब उन्होंने मेघसेन नामक अपने पुत्रके लिए विधिपूर्वक राज्य दे दिया और छोटे भाई तथा सात हजार अन्य राजाओंके साथ दीक्षा धारण कर ली। वे क्रमक्रमसे ग्यारह अङ्गके जानकार हो गये । उसी सयम उन्होंने तीर्थंकर नामकर्मके बन्धमें कारणभूत निम्नांकित सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन किया ।। ३०७ - ३११ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि होना सो दर्शनविशुद्धि है । उसके निःशङ्कता आदि आठ अङ्ग हैं ।। ३१२ ॥ मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति करनेवाले मनुष्यके लिए जो फल बतलाया है वह होता है या नहीं इस प्रकारकी शंकाका त्याग निःशङ्कता कहलाती है ।। ३१३ ।। मिध्यादृष्टि जीव इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगोंकी जो आकांक्षा करता है उसका त्याग करना आगम में निःकांक्षित नामका दूसरा अङ्ग बतलाया है। इससे सम्यग्दर्शनकी विशुद्धता होती है ।। ३१४ ।। शरीर आदिमें अशुचिअपवित्र पदार्थोंका सद्भाव है ऐसा जानते हुए भी 'मैं पवित्र हूँ' ऐसा जो संकल्प होता है उसका त्याग
१ प्रोक्ताः सत्यस्त्रिपञ्चाशत् म०, ल० । २ अवतारादिका निर्वृत्यन्ता क०, ख०, घ० म० । ३ सद्गृहीशादि । ४ तिष्ठत्वनुज-ल० । ५ यथा ल०, क०, ग०, घ० । ६-नभाषयत् ल० । ७ परित्यागः ल० । ८ विशुद्धेर्दर्शनश्रियः म० ।
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