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त्रिषष्टितमं पर्व
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'अन्य देशानकल्पेशो मरुन्मध्ये यदृच्छया । समस्तौत्प्रिय मित्राया रूपमाकर्ण्य तत्स्तवम् ॥२८८॥ रतिषेणा रतिश्चैत्य देव्यौ तद्रपमीक्षितुम् । ऐतां मजनवेलायां गन्धतैलाक्तदेहिकाम् ॥२८॥ निरूप्येन्द्रवचः सम्यक श्रद्धायाप्यभिभाषितुम् । तया सहैत्य कन्याकृती धृत्वा तां समूचतुः ॥२९०॥ वामिध्यकन्यके' द्रष्टुमैतामिति सखीमुखात् । ताभ्यामुक्तं समाकर्ण्य प्रमदादस्तु तिष्ठताम् ॥२९१॥ तावदित्यात्मसंस्कारं कृत्वाऽऽहूयाभ्यदर्शयत् । तां निशम्याहतुस्ते च प्राग्वत्कान्तिन चाधुना ॥२९२॥ इति सा तद्वचः श्रुत्वा प्रियमित्रा महीपतेः । वक्त्रं व्यलोकयत् प्राह सोऽपि कान्ते तथेति ताम् ॥२९३॥ देव्यौ ३स्वं रूपमादाय निजागमनवृत्तकम् । निवेद्य रूपमस्याश्च धिग्विलक्षणभङ्गरम् ॥२९॥ अन्न नाभङ्गरं किञ्चिदिति निविंद्य चेतसा। तां सम्पूज्येयतुः स्वर्ग स्वदीप्तिव्याप्तदिकतटे ॥२९५॥ “देवीं त तुना ५खिन्नां नित्यानित्यात्मक जगत् । सर्वमन्तः शुचं मा गा इत्याश्वास्य महीपतिः॥२९६॥ राज्यभोगैः स्वकान्ताभिनितान्तं निर्वृतिं प्रजन् । गत्वा मनोहरोद्यानमन्येधुः स्वगुरुं जिनम् ॥२९७॥ सिंहासने समासीनं सुरासुरपरिष्कृतम् । समस्तपरिवारेण त्रिःपरीत्याभिवन्द्य च ॥२९८॥ सर्वभव्यहितं वाञ्छन् पप्रच्छोपासकक्रियाम् । प्रायः कल्पद्रमस्येव पराथं चेष्टितं सताम् ॥२९॥ प्रागुक्तैकादशोपासकस्थानानि विभागतः । उपासकक्रियाबद्धोपासकाध्ययनाह्वयम् ॥३०॥ 'अङ्ग सप्तममाख्येयं श्रावकाणां हितैषिणाम् । इति व्यावर्णयामास तीर्थकृतप्रार्थितार्थकृत् ॥३०१॥ गर्भान्वयक्रियाः पूर्व ततो दीक्षान्वयक्रियाः । कर्मान्वयक्रियाश्चान्या स्तत्सङ्ख्याश्चानु' तत्त्वतः ॥३०२॥ -- किसी दूसरे दिन ऐशानेन्द्रने देवोंकी सभामें अपनी इच्छासे राजा मेघरथकी रानी प्रियमित्राके रूपकी प्रशंसा की । उसे सुनकर रतिषणा और रति नामकी दो देवियाँ उसका रूप देखनेके लिए
आई । वह स्नानका समय था अतः प्रियमित्राके शरीरमें सुगन्धित तेलका मर्दन हो रहा था। उस समय प्रियमित्राको देखकर देवियोंने इन्द्रके वचन सत्य समझे। अनन्तर उसके साथ बातचीत करनेकी इच्छासे उन देवियोंने कन्याका रूप धारण कर सखीके द्वारा कहला भेजा कि दो धनिक कन्याएँ-सेठकी पुत्रियाँ आपके दर्शन करना चाहती हैं। उनका कहा सुनकर प्रियमित्राने हर्षसे कहा कि बहुत अच्छा, ठहरें। इस प्रकार उन्हें ठहराकर रानी प्रियमित्राने अपनी सजावट की। फिर उन कन्याओंको बुलाकर अपने आपको दिखलाया-उनसे भेंट की। रानीको देखकर दोनों देवियाँ कहने लगी कि जैसी कान्तिापहले थी अब वैसी नहीं है। कन्याओंके वचन सुनकर प्रियमित्रा राजाका मुख देखने लगी। उत्तरमें राजाने भी कहा कि हे प्रिये ! बात ऐसी ही है ।। २८८-२६३ ।। तदनन्तर देवियोंने अपना असली रूप धारण कर अपने आनेका समाचार कहा और इसके विलक्षण किन्तु नश्वर रूपको धिक्कार हो। इस संसारमें कोई भी वस्तु अभङ्गर नहीं है इस प्रकार हृदय से विरक्त हो रानी प्रियमित्राकी पूजा कर वे देवियाँ अपनी दीप्तिसे दिशाओंके तटको व्याप्त करती हुई स्वर्गको चली गई ॥२६४-२६५ ॥ इस कारणसे रानी प्रियमित्रा खिन्न हुई परन्तु 'यह समस्त संसार ही नित्यानित्यात्मक है अतः हृदयमें कुछ भी शोक मत करो' इस प्रकार राजाने उसे समझा दिया ॥२६६ ॥ इस तरह अपनी स्त्रियोंके साथ राज्यका उपभोग करते हुए राजा मेघरथ बहुत ही आनन्दको प्राप्त हो रहे थे। किसी दूसरे दिन वे मनोहर नामक उद्यानमें गये । वहाँ उन्होंने सिंहासन पर विराजमान तथा देव और धरणेन्द्रोंसे परिवृत अपने पिता धनरथ तीर्थकरके दर्शन किये । समस्त परिवारके साथ उन्होंने तीन प्रदक्षिणाएँ दीं, वन्दना की और समस्त भव्य जीवोंक हितकी इच्छा करते हुए श्रावकोंकी क्रिया पूछी सो ठीक ही है क्योंकि सजनोंकी चेष्टा कल्पवृक्षके समान प्रायः परोपकारके लिए ही होती है ।। २६७-२६६ ॥ हे देव ! जिन श्रावकोंके ग्यारह स्थान पहले विभाग कर बतलाये हैं उन्हीं श्रावकोंकी क्रियाओंका निरूपण करनेवाला उपासकाध्ययन नामका सातवाँ अङ्ग, हितकी इच्छा करनेवाले श्रावकों के लिए कहिए। इस प्रकार राजा मेघरथके पूछने पर मनोरथको पूर्ण करनेवाले धनरथ तीर्थंकर निम्न प्रकार वर्णन करने लगे। ३००-३०१ ॥ उन्होंने कहा
१ अन्यदेशान-ख०, ग०, म० । २ धनाढ्यकन्यके । ३ स्वरूप-ल। ४ देवी ल० ।५ खिमान ( क्रिया: म०, ल०। प्राप्य न.15 अगसप्तम ल•। तसंख्यास्य तुल।
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