________________
त्रिषष्टितमं पर्व
तस्यानुपदमेवान्यो गृद्धो बद्धजवः पुरः । स्थित्वा नृपस्य 'देवाहं महाक्षुद्वेदनातुरः ॥ २५९ ॥ ततः कपोतमेतं मे भक्ष्यं त्वच्छरणागतम् । वदस्व दानशूर त्वं न चेद्विखयत्र मां मृतम् ॥ २६० ॥ इत्यवादीशदाकर्ण्य युवा दृढरथोऽब्रवीत् । पूज्य ब्रूहि वदत्येपे गृध्रः केनास्मि विस्मितः ॥ २६१॥ इति स्वानुजसम्प्रभादित्यवोचन्महीपतिः । २ इह जम्बूद्रमद्वीपे क्षेत्रे मेरोरुदग्गते ॥ २६२॥ नगरे पद्मिनीटे वणिक् सागरसेनवाक् । तस्यामितमतिः प्रीता तयोर्लघुतरौ सुतौ ॥ २६३॥ धनमित्रोऽभवन्नन्दिषेणः स्वधनहेतुना । हत्वा परस्परं मृत्वा खगावेतौ बभूवतुः ॥ २६४ ॥ देवः सन्निहितः कश्चित् गृध्रस्योपरि कः स चेत् । त्वया हेमरथो नाम्ना दमितारिरणे हतः ॥२६५॥ परिभ्रम्य भवे भूयः कैलासाद्वितटेऽभवत् । पर्णकान्तानदीतीरे धीमांश्चन्द्राभिधानकः ॥ २६६ ॥ श्रीदत्तायां कुशास्त्रज्ञस्तनूजः सोमतापसात् । तपः पञ्चामि सन्तप्य " द्योतिर्लोकेऽमरोऽजनि ॥ २६७॥ स कदाचिदिवं गत्वा द्वितीयेन्द्रसभासदैः । दाता मेघरथाञ्चान्यः क्षितावस्तीति संस्तुतम् ॥ २६८ ॥ श्रुत्वा प्रोद्यदमर्षेण मां परीक्षितुमागतः । श्रृणु चेतः समाधाय भ्रातर्दानादिलक्षणम् ॥ २६९॥ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानं विदोऽवदन् । अनुग्रहोऽपि स्वाम्योपकारित्वमभिधीयते ॥ २७० ॥ दाता च शक्तिविज्ञानश्रद्धादिगुणलक्षितः । देयं वस्त्वप्यपीडाभाक् तद्द्वयोर्गुणवर्द्धनम् ॥ २७१॥ साधनं क्रमशो मुक्तेराहारो भेषजं श्रुतम् । सर्वप्राणिदया शुद्धं देयं सर्वज्ञभाषितम् ॥ २७२॥ मोक्षमार्गे स्थितः पाता स्वस्यान्येषां च संसृतेः । पात्रं दानस्य सोऽभीष्टो निष्ठितार्थैर्निरञ्जनैः ॥ २७३॥ - कृतार्थः सन् जगत्त्रातुं निरवद्यं वचोऽवदत् । भव्येभ्यः स हि दाता तद्देयं तत्पात्रमुरामम् ॥ २७४॥ कबूतर मुझे दे दीजिये। हे दानवीर ! यदि आप यह कबूतर मुझे नहीं देते हैं तो वश, मुझे मरा ही समझिये || २५५ - २६० ॥ गीध के यह वचन सुनकर युवराज दृढ़रथ कहने लगा कि हे पूज्य ! कहिये तो, यह गीध इस प्रकार क्यों बोल रहा है, इसकी बोली सुनकर तो मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है । अपने छोटे भाईका यह प्रश्न सुनकर राजा मेघरथ इस प्रकार कहने लगा कि इस जम्बूद्वीपमें मेरुपर्वतके उत्तरकी ओर स्थित ऐरावत क्षेत्रके पद्मिनीखेट नामक नगर में सागरसेन नामका वैश्य रहता था । उसकी स्त्रीका नाम अमितमति था । उन दोनोंके सबसे छोटे पुत्र धनमित्र और नन्दिषेण थे। अपने धनके निमित्तसे दोनों लड़ पड़े और एक दूसरेको मारकर ये कबूतर तथा गीध नामक पक्षी हुये हैं । २६१ - २६४ ।। गीधके ऊपर कोई एक देव स्थित है । वह कौन है ? यदि यह जानना चाहते हो तो मैं कहता हूँ । दमितारिके युद्ध में तुम्हारे द्वारा जो हेमरथ मारा गया था वह संसारमें भ्रमणकर कैलाश पर्वतके तटपर पर्णकान्ता नदीके किनारे सोम नामक तापस हुआ । उसकी श्रीदत्ता Treat स्त्रीके मिध्याशास्त्रोंको जाननेवाला चन्द्र नामका पुत्र हुआ। वह पचामि तप तपकर ज्योतिलोकमें देव उत्पन्न हुआ।।।। २६५ - २६७ ।। वह किसी समय स्वर्ग गया हुआ था वहाँ ऐशानेन्द्रके सभासदोंने स्तुति की कि इस समय पृथिवीपर मेघरथसे बढ़कर दूसरा दाता नहीं है। मेरी इस स्तुतिको सुनकर इसे बड़ा क्रोध आया। यह उसी क्रोधवश मेरी परीक्षा करनेके लिए यहाँ आया है । हे भाई! चित्तको स्थिरकर दान आदिका लक्षण सुनो ॥ २६८- २६६ ॥ अनुग्रह करनेके लिए जो कुछ अपना धन या अन्य कोई वस्तु दी जाती है उसे ज्ञानी पुरुषोंने दान कहा है और अनुग्रह शब्दका अर्थ भी अपना और दूसरेका उपकार करना बतलाया जाता है ।। २७० ।। जो शक्ति विज्ञान श्रद्धा आदि गुणोंसे युक्त होता है वह दाता कहलाता है और जो वस्तु देनेवाले तथा लेनेवाले दोनों के गुणोंको बढ़ानेवाली है तथा पीड़ा उत्पन्न करनेवाली न हो उसे देय कहते हैं ।। २७१ ।। सर्वज्ञ देवने यह देय चार प्रकारका बतलाया है आहार, औषधि, शास्त्र तथा समस्त प्राणियोंपर दया करना । ये चारों ही शुद्ध देय हैं तथा क्रम-क्रम से मोक्षके साधन हैं ।। २७२ ।। जो मोक्षमार्ग में स्थित है और अपने आपकी तथा दूसरोंकी संसार भ्रमणसे रक्षा करता है वह पात्र है ऐसा कर्ममल रहित कृतकृत्य जिनेन्द्रदेवने कहा है ।। २७३ ॥ श्रथवा जो कृतकृत्य होकर जगत्की रक्षा करनेके लिए भव्य जीवोंको
३ पर्णकाशनदी ल०, ग०, म० । ४ ततः ख ।
१ देवाह ल० । २ श्रत्र जम्बूमति द्वीपे ख० । ५ ज्योतिर्लोकेऽमरो म०, ल० । ६ स ल० ।
२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
१६३
www.jainelibrary.org