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महापुराणे उत्तरपुराणम् इदमेव किमस्त्यन्यदनान्यत्रापि 'नेत्यसौ । तयोक्तो नान्यदित्यस्य प्राग्जन्मेत्युपविष्टवान् ॥२४५॥ द्वीपे द्वितीये पूर्वस्मिरावतसमाये । देशे शङ्कपुरे राजा 'राजगुप्तोऽस्य शतिका ॥२४॥ भार्या तौ शङ्कशैलस्थात्सर्वगुप्तमुनीश्वरात् । आप्तौ जिनगुणख्यातिमुपोषितविधि समम् ॥२७॥ भिक्षाचरमथान्येषतिषेणयतीश्वरम् । निरीक्ष्य भिक्षा दस्वाऽस्मै वसुधाराचवापताम् ॥२८॥ समाधिगुप्तमासाद्य संन्यस्याभूल्स भूपतिः । ब्रोन्द्रः स्वायुषोत्कृष्टः तस्मात् सिंहरथोऽजनि ॥२५९॥ शहिकाच परिभम्य संसारे तपसाऽगमत् । देवलोकं ततश्च्युत्वा खगभूमुदपाक्तटे ॥२५०॥ वस्वालयपुरे सेन्द्रकेतोरासीदियं सुता। सती मदनवेगाख्या सुप्रभाया स तच्छृतेः ॥२५॥ परितुष्य नृपं श्रिवा पूजयित्वा यथोचितम् । सुवर्णतिलके राज्य नियोज्य बहुभिः सह ॥२५२॥ दीक्षा घनरथाभ्यणे जैनी सिंहरथोऽग्रहीत् । प्रियमित्राभिधां प्राप्य गणिनी गुणसबिधिम् ॥२५३॥ सुधीर्मदनवेगा च कृच्छ्रमुचाचरतपः । कोपोऽपि काऽपि कोपोपलेपनापनुदे मतः ॥२५॥ अथ स्वपुण्यकर्माप्तप्राज्यराज्यमहोदयात् । त्रिवर्गफलपर्यन्तपरिपूर्णमनोरथम् ॥२५५॥ शुद्धश्रद्धानसम्पर्ष व्रतशीलगुणान्वितम् ।सप्रश्रयं श्रुताभि प्रगल्भं वल्भभाषिणम् ॥२५६॥ सुसप्तपरमस्थानभागिनं भव्यभास्करम् । नृपं मेघरथं दारदारकादिनिषेवितम् ॥२५७॥
कृत्वा नान्दीश्वरी पूजा जैनधर्मोपदेशिनम् । सोपवासमवाप्यैकः कपोतः तं सवेपथुः ॥२५॥ कारण क्या है ॥२४१-२४४॥ यही है कि और कुछ है ? इस जन्म सम्बन्धी या अन्य जन्म सम्बन्धी ? प्रियमित्राके ऐसा पूछनेपर मेघरथने कहा कि यही कारण है । अन्य नहीं है, इतना कहकर वह उसके पूर्वभव कहने लगा ।। २४५ ॥
दूसरे धातकीखण्डद्वीपके पूर्वार्धभागमें जो ऐरावत क्षेत्र है, उसके शङ्खपुर नगरमें राजा राजगुप्त राज्य करता था। उसकी स्वीका नाम शटिका था। एक दिन इन दोनों ही पति-पनियोंने शङ्कशैल नामक पर्वतपर स्थित सर्वगुप्त नामक मुनिराजसे जिनगुणख्याति नामक उपवास साथ-साथ प्रहण किया। किसी दूसरे दिन धृतिषेण नामके मुनिराज भिक्षाके लिए घूम रहे थे। उन्हें देख दोनों दम्पतियोंने उनके लिए भिक्षा देकर रत्नवृष्टि आदि पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ २४६-२४८॥ तदनन्तर राजा राजगुप्तने समाधिगुप्त मुनिराजके पास संन्यास धारण किया जिससे उत्कृष्ट आयुका धारक ब्रह्मेन्द्र हुआ । वहाँसे चयकर सिंहरथ हुआ है। शशिका भी संसारमें भ्रमणकर तपके द्वारा स्वर्ग गई। वहाँसे च्युत होकर विजयार्धपर्वतके दक्षिण तटपर वस्त्वालय नामके नगरमें राजा सेन्द्रकेतु और उसकी सुप्रभा नामकी स्त्रीसे मदनवेगा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई है ।। २४६-२५१ ॥ यह सुनकर राजा सिंहरथ बहुत ही सन्तुष्ट हुआ । उसने पास जाकर यथायोग्य रीतिसे राजा मेघरथकी पूजा की, सुवर्णतिलक नामक पुत्रके लिए राज्य दिया और बहुतसे राजाओंके साथ घनरथ तीर्थंकरके समीप जैनी दीक्षा ग्रहण कर ली। इधर बुद्धिमती मदनवेगा भी गुणोंकी भाण्डार स्वरूप प्रियमित्रा नामकी
आर्यिकाके पास जाकर कठिन तपश्चरण करने लगी। सो ठीक ही है क्योंकि कहींपर क्रोध भी क्रोधका उपलेप दूर करनेवाला माना गया है ।। २५२-२५४ ॥
अथानन्तर-अपने पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त हुए श्रेष्ठ राज्यके महोदयसे त्रिवर्गके फलकी प्राप्ति पर्यन्त जिसके समस्त मनोरथ पूर्ण हो चुके है, जो शुद्ध सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न है. व्रतशील आदि गुणोंसे युक्त है, विनय सहित है, शास्त्रको जाननेवाला है, गम्भीर है, सत्य बोलनेवाला है, सात परम स्थानोंको प्राप्त है, भव्य जीवोंमें देदीप्यमान है तथा स्त्री पुत्र आदि जिसकी सेवा करते हैं ऐसा राजा मेघरथ किसी दिन आष्टाह्रिक पूजाकर जैनधर्मका उपदेश दे रहा था और स्वयं उपवासका
यम लेकर बैठा था कि इतने में काँपता हुआ एक कबूतर आया और उसके पीछे ही बड़े वेगसे चलनेवाला एक गीध आया। वह राजाके सामने खड़ा होकर बोला कि हे देव! मैं बहुत भारी भूखकी वेदनासे पीड़ित हो रहा हूं इसलिए आप, आपकी शरणमें आया हुआ यह मेरा भक्ष्य १ चैत्यसौ ल । २ रतिगुप्तोऽस्य ग० । ३ सम्पन्नतशील ग. । ४ वल्मभाषितम् ख०। ५ देशिनीम् न ।
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