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महापुराणे उत्तरपुराणम्
पश्यतान्यानि च स्वैरं मानुषोत्तरभूभृतः । मध्यवर्तीनि सर्वाणि प्रीत्याविष्कृततेजसा ॥ २१९ ॥ अकृत्रिमजिनागाराण्यभ्यर्च्य स्तुतिभिश्चिरम् । स्तुत्वाऽर्थ्याभिर्निवृत्यापि स्वपुरं परमोत्सवम् ॥ २२० ॥ दिव्याभरणदानेन परिपूज्य महीपतिम् । सामोक्तिभिश्च तौ व्यन्तेरेशौ स्वावासमीयतुः ॥ २२१ ॥ यः कर्मव्यतिहारेण नोपकारार्णवं तरेत् । स जीवन्नपि निर्जीवो निर्गन्धप्रसवोपमः ॥ २२२ ॥ कृकवाकू च चेदेवमुपकारविदौ कथम् । मनुष्यो जरयत्यङ्गे न चेदुपकृतं खलः ॥ २२३ ॥ कदाचित्काललाभेन नृपो घनरथाह्वयः । चोदितः स्वगतं धीमानिति देहाद्यचिन्तयत् ॥ २२४ ॥ धिक्कष्टमिष्टमित्येतत् शरीरं जन्तुरावसेत् । अवस्करगृहाच्चैनं नापैत्यतिजुगुप्सितम् ॥ २२५ ॥ तर्पकाणि सुखान्याहुः कानि तान्यत्र देहिनाम् । मोहः कोऽप्यतिदुःखेषु सुखास्था पापहेतुषु ॥ २२६ ॥ जन्माद्यन्तर्मुहूर्त चेज्जीवितं निश्चितं ततः । न क्षणे च कुतो जन्मी जायेत न हिते रतः ॥ २२७ ॥ बन्धवो बन्धनान्येते सम्पदो विपदोऽङ्गिनाम् । न चेदेवं कुतः सन्तो वनान्तं" प्राक्तनाः गताः ॥२२८॥ वितर्कयन्तमित्येनं प्राप्य लौकान्तिकामराः । विज्ञायावधिविज्ञानादनुवक्तु ं तदीप्सितम् ॥ २२९ ॥ देव देवस्य को वक्ता देव एवावगच्छति । साधु हेयमुपादेयं चार्थमित्यादिसंस्तवैः ॥ २३० ॥ स्तुत्वा सतामभिष्टुत्यमभ्यर्च्य प्रसवैनिजैः । नियोगमनुपालय स्वं स्वं धामैतु नभोऽगमन् ॥ २३१ ॥ ततो मेघ' रथो राज्यमभिषेकपुरस्सरम् । नियोज्याभिषवं देवैः स्वयं चाप्याप संयमम् ॥ २३२ ॥
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प्रीति अकृत्रिम जिन-मन्दिरोंकी पूजा की, अर्थपूर्ण स्तुतियोंसे स्तुति की और तदनन्तर बड़े उत्सवोंसे युक्त अपने नगरमें वापिस आ गये ।। २०८ - २२० ।। वहाँ आकर उन व्यन्तर देवोंने दिव्य आभरण देकर तथा शान्तिपूर्ण शब्द कहकर राजाकी पूजा की और उसके बाद वे निवासस्थान पर चले गये ।। २२१ ॥ जो मनुष्य बदलेके कार्यसे उपकार रूपी समुद्रको नहीं तिरता है अर्थात् उपकारी मनुष्यका प्रत्युपकार नहीं करता है वह गन्ध रहित फूलके समान जीता हुआ भी मरेके समान है ।। २२२ ।। जब ये दो मुर्गे इस प्रकार उपकार मानने वाले हैं तब फिर मनुष्य अपने शरीरमें जीर्ण क्यों होता है ? यदि उसने उपकार नहीं किया तो वह दुष्ट ही है ।। २२३ ॥
किसी एक दिन काललब्धिसे प्रेरित हुए बुद्धिमान् राजा घनरथ अपने मनमें शरीरादिका इस प्रकार विचार करने लगे || २२४ ॥ इस जीवको धिक्कार है । बड़े दुःखकी बात है कि यह जीव शरीरको इष्ट समझकर उसमें निवास करता है परन्तु यह इस शरीरको विष्ठाके घरसे भी अधिक घृणास्पद नहीं जानता ॥ २२५॥ जो संतोष उत्पन्न करनेवाले हों उन्हें सुख कहते हैं । परन्तु ऐसे सुख इस संसार में प्राणियोंको मिलते ही कहाँ हैं ? यह कोई मोहका ही उदय समझना चाहिए कि जिसमें यह प्राणी पापके कारणभूत दुःखोंको सुख समझने लगता है ।। २२६ ॥ जन्मसे लेकर अन्तमुहूर्त पर्यन्त यदि जीवके जीवित रहनेका निश्चय होता तो भी ठीक है परन्तु यह क्षणभर भी जीवित रहेगा जब इस बातका भी निश्चय नहीं है तब यह जीव आत्महित करनेमें तत्पर क्यों नहीं होता ? ।। २२७ ।। ये भाई-बन्धु एक प्रकारके बन्धन हैं और सम्पदाएँ भी प्राणियोंके लिए विपत्ति रूप हैं । यदि ऐसा न होता तो पहलेके सज्जन पुरुष जङ्गलके मध्य क्यों जाते ? ॥ २२८ ॥ दूधर महाराज धनरथ ऐसा चिन्तवन कर रहे थे कि उसी समय अवधिज्ञानसे जानेकर लौकान्तिक देव उनके इष्ट पदार्थका समर्थन करनेके लिए आ पहुँचे ॥ २२६ ॥ वे कहने लगे कि हे देव ! आपके लिए हितका उपदेश कौन दे सकता है ? आप स्वयं ही हेय उपादेय पदार्थको जानते हैं । इस प्रकार सज्जनोंके द्वारा स्तुति करने योग्य भगवान् घनरथकी लौकान्तिक देवोंने स्तुति की। स्वर्गीय पुष्पोंसे उनकी पूजा की, अपना नियोग पालन किया और यह सब कर वे अपने-अपने स्थान पर जानेके लिए आकाशमें जा पहुँचे ।। २३० - २३२ ॥ तदनन्तर भगवान् घनरथने अभिषेक- पूर्वक मेघरथके लिए राज्य दिया, देवोंने उनका अभिषेक किया और इस तरह उन्होंने स्वयं संयम धारण कर लिया
१ स्तुत्वार्थ्याभिर्निवृत्याविशत्पुरं ल० । २ निर्गन्धकुसुमोपमः ल० । ३ अवास्करगृहाच्चै तन्नानेत्यति - क्ष० । ४ विपदाङ्गिनाम् ल० । ५ वनान्ते ख०, ग० । ६ मेघरथे ल० ।
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