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महापुराणे उत्तरपुराणम्
न तु मांसादिकं देयं पात्रं नास्य प्रतीच्छकः । तद्दातापि न दातेमौ ज्ञेयौ नरकनायकौ ॥ २७५ ॥ ततो गृधो न तत्पात्र नायं १ देयः कपोतकः । तथा मैवरथीं वाणीमाकर्ण्य ज्यौतिषामरः ॥२७६॥ असि दानविभागज्ञो दानशूरश्च पार्थिव । इति स्तुत्वा प्रदर्श्य स्वं तं प्रपूज्य जगाम सः ॥ २७७॥ द्विजद्वयमपि ज्ञात्वा तदुक्तं त्यक्तदेहकम् । अरण्ये देवरमणे स्तां सुरूपातिरूपकौ ॥ २७८ ॥ देव मेघरथं पश्चास्वत्प्रसादात्कुयोनितः । निरगाव नृपेत्युक्त्वा पूज्यं सम्पूज्य जग्मतुः ॥ २७९॥ कदाचित्स नृपो दानं दत्त्वा दमवरेशिने । चारणाय परिप्राप्तपञ्चाश्चर्यविधिः सुधीः ॥ २८०॥ नन्दीश्वरे" महापूजां विधायोपोषितं श्रितः । निशायां प्रतिमायोगे ध्यायन्नस्थादिवाद्रिराट् ॥ २८१॥ ईशानेन्द्रो विदित्वैतन्मरुत्तदसि शुद्धद्दक् । धैर्यसारस्त्वमेवाद्य चित्रमित्यब्रवीन्मुदा ॥ २८२॥ स्वगतं तं स्तवं श्रुत्वा देवैः कस्य स्तुतिः सतः । त्वयाऽकारीत्यसौ पृष्टः प्रत्याहेति सुरान् प्रति ॥ २८३ ॥ धीरो मेघरथो नाम शुद्धद्दक् पार्थिवाग्रणीः । प्रतिमायोगधार्यद्य तस्य भक्त्या स्तुतिः कृता ॥ २८४ ॥ तदुदीरितमाकर्ण्य तत्परीक्षातिदक्षिणे । अतिरूपासुरूपाख्ये देव्यावागत्य भूपतिम् ॥ २८५॥ विलासैर्विमैहावैर्भावैगतैः प्रजल्पितैः । अन्यैश्च मदनोन्मादहेतुभिस्तन्मनोबलम् ॥ २८६ ॥ विद्युल्लतेव देवानिं ते चालतियमक्षमे । सत्यमीशानसम्प्रोक्तमिति स्तुत्वा स्वरीयतुः ॥ २८७ ॥
निर्दोष वचन कहते हैं वही उत्तम दाता हैं, वही उत्तम देय हैं और वही उत्तम पात्र हैं ।। २७४ ॥ मांस आदि पदार्थ देय नहीं है, इनकी इच्छा करनेवाला पात्र नहीं है, और इनका देनेवाला दाता नहीं है । ये दोनों तो नरकके अधिकारी हैं ।। २७५ ।। कहनेका सारांश यह है कि यह गीध दानका पात्र नहीं है और यह कबूतर देने योग्य नहीं है । इस प्रकार मेघरथकी वाणी सुनकर वह ज्योतिषी देव अपना असली रूप प्रकटकर उसकी स्तुति करने लगा और कहने लगा कि हे राजन् ! तुम अवश्य ही दानके विभागको जाननेवाले हो तथा दानके शूर हो। इस तरह पूजाकर चला गया ।। २७६-२७७ ।। उन गीध और कबूतर दोनों पक्षियोंने भी मेघरथकी कही सब बातें समझी और अन्तमें शरीर छोड़कर वे दोनों देवरमण नामक वनमें सुरूप तथा प्रतिरूप नामके दो व्यन्तर देव हुए ।। २७८ ॥ तदनन्तर राजा मेघरथके पास आकर वे देव इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे राजन् ! आपके प्रसादसे ही हम दोनों कुयोनिसे निकल सके हैं। ऐसा कहकर तथा पूज्य मेघरथकी पूजाकर वे दोनों देव यथास्थान चले गये ॥ २७६ ॥
किसी समय उस बुद्धिमान् राजाने चारण ऋद्धिधारी दमवर स्वामीके लिए दान देकर पञ्चाञ्चर्य प्राप्त किये || २८० ।। किसी दूसरे दिन राजा मेघरथ नन्दीश्वर पर्व में महापूजा कर और उपवास धारण कर रात्रिके समय प्रतिमायोग द्वारा ध्यान करता हुआ सुमेरु पर्वतके समान विराजमान था ।। २८१ ।। उसी समय देवोंकी सभा में ईशानेन्द्रने यह सब जानकर बड़े हर्षसे कहा कि अहा ? आचर्य है आज संसारमें तू ही शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और तू ही धीर-वीर है ।। २८२ ।। इस तरह अपने आप की हुई स्तुतिको सुनकर देवोंने ईशानेन्द्रसे पूछा कि आपने किस सज्जनकी स्तुति की है ? उत्तर में इन्द्र देवोंसे इस प्रकार कहने लगा कि राजाओं में अग्रणी मेघरथ अत्यन्त धीरवीर है, शुद्ध सम्यग्दृष्टि है, आज वह प्रतिमायोग धारण कर बैठा है । मैंने उसीकी भक्ति से स्तुति की है ।। २८३ - २८४ ।। ईशानेन्द्रकी उक्त बातको सुनकर उसकी परीक्षा करनेमें अत्यन्त चतुर अतिरूपा और सुरूपा नामकी दो देवियाँ राजा मेघरथके पास आई और विलास, विभ्रम, हाव-भाव, गीत, बातचीत तथा कामके उन्मादको बढ़ानेवाले अन्य कारणोंसे उसके मनोबलको विचलित करनेका प्रयत्न करने लगीं परन्तु जिस प्रकार बिजलीरूपी लता सुमेरु पर्वतको विचलित नहीं कर सकती उसी प्रकार वे देवियाँ राजा मेघरथके मनोबलको विचलित नहीं कर सकीं । अन्त में वे 'ईशानेन्द्रके द्वारा कहा हुआ सच है' इस प्रकार स्तुति कर स्वर्ग चली गई ।। २८५ - २८७ ॥
ख०,
१ देयं कपोतकम् घ० । देयं कपोतकः ल० । २ ज्योतिषोऽमरः म०, ल० । ३ संपूजय क०, घ० । ४ दमवरेशिनः ख० । ५ नन्दीश्वर ख०, ल० । ६ विदित्वैनं ग० । ७ स्वः स्वर्ग ईयतुः जग्मतुः ।
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