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एकोनषष्टितमें पर्व
सर्वस्वहरजोद्भूतशोकव्याकुलिताशयः । प्रलापीति जनानेतत् स्वप्रामाण्यादजिग्रहत् ॥ १५३ ॥ समक्षं भूपतेरात्मशुद्धयर्थं शपथं च सः । धर्माधिकृत निर्दिष्टं चकाराचारदूरगः ॥ १५४ ॥ भद्रमित्रोऽपि पापेन वञ्चितोऽहं निजातिना । द्विजातिनेत्यनाथोऽपि नामुञ्चत् पूत्कृतिं मुहुः ॥ १५५ ॥ चतुर्विधोपधा शुद्धं युक्तं जात्यादिभिर्गुणैः । त्वां सत्यं सत्यघोषाङ्कं मत्वा मन्त्रिगुणोत्तमम् ।। १५६ ।। यथा न्यासीकृतं हस्ते तव रत्नकरण्डकम् । किमेवमपलापेन हेतुं तद्ब्रूहि युज्यते ॥ १५७ ॥ सिंहसेनमहाराजप्रसादेन न तेऽस्ति किम् । छत्रसिंहासने मुक्त्वा ननु राज्यमिदं तव ॥ १५८ ॥ धर्म यशो महत्त्वं च किं वृथैव विघातयेः । न्यासापह्नवदोषं किं न वेत्सि 'स्मृतिषूदितम् ॥ १५९ ॥ एतदेवार्थशास्त्रस्य नित्यमध्ययने फलम् । यत्परानतिसन्धत्ते नातिसन्धीयते परैः ॥ १६० ॥ इत्यत्र परशब्दार्थे विपर्येषि परो मतः । तत्र शत्रुरहं किं भोः सत्यघोष रिपुस्तव ।। १६१ ॥ सद्भावप्रतिपन्नानां वञ्चने का विदग्धता । अङ्कमारा सुप्तस्य हन्तुः किं नाम पौरुषम् ॥ १६२ ॥ महामोहग्रहग्रस्त - श्रीभूते भाविजन्मना । त्वं तन्मा नीनशो देहि मह्यं रत्नकरण्डकम् ॥ १६३ ॥ ईदृश्येतत्प्रमाणानि जातिस्तेषामियं स्वयम् । जानंश्च मम रत्नानि किमित्येवमपहुषे ॥ १६४ ॥ एवं अनित्यं निशाप्रान्ते रोरौत्यारुह्य भूरुहम् । कृत्ये कृच्छ्रेऽपि सत्त्वाढ्या न त्यजन्ति समुद्यमम् ॥ १६५ ॥ मुहुर्मुहुस्तदाकर्ण्य महादेव्या मनस्यभूत् । जानेऽहं नायमुन्मत्तः सर्वदानुगतं वदन् ॥ १६६ ॥ इति सावेद्य भूपाल धूतोपायेन मन्त्रिणम् । जित्वा यज्ञोपवीतेन सार्द्धं तन्नाममुद्रिकाम् ॥ १६७ ॥ 'दत्वा निपुणमत्याख्यधात्रीकरतले मिथः । प्रहितं मन्त्रिणा देहि भद्रमित्रकरण्डकम् ॥ १६८ ॥ चित्त व्याकुल हो गया है और उसी दशा में वह यह सब बक रहा है । ।। १५२ - १५३ ।। सदाचारसे दूर रहने वाले उस सत्यघोषने अपनी शुद्धता प्रकट करनेके लिए राजाके समक्ष धर्माधिकारियोंन्यायाधीशोंके द्वारा बतलाई हुई शपथ खाई ॥ १५४ ॥ भद्रमित्र यद्यपि अनाथ रह गया था तो भी उसने अपना रोना नहीं छोड़ा, वह बार-बार यही कहता था कि इस पापी विजाति ब्राह्मणने मुझे ठग लिया ।। १५५ ॥ हे सत्यघोष ! मैंने तुझे चारों तरहसे शुद्ध जाति आदि गुणोंसे युक्त मंत्रियों के उत्तम गुणोंसे विभूषित तथा सचमुच ही सत्यघोष समझा था इसलिए ही मैंने अपना नोंका पिटारा तेरे हाथमें सौंप दिया था, अब इस तरह तूं क्यों बदल रहा है, इस बदलनेका कारण क्या है और यह सब करना क्या ठीक है ? महाराज सिंहसेनके प्रसादसे तेरे क्या नहीं है ? छत्र और सिंहासनको छोड़कर यह सारा राज्य तेरा ही तो है ।। १५६ - १५८ ॥ फिर धमें, यश और बड़प्पनको व्यर्थ ही क्यों नष्ट कर रहा है ? क्या तू स्मृतियोंमें कहे हुये न्यासापहारके दोषको नहीं जानता ? ॥१५६॥ तूने जो निरन्तर अर्थशास्त्रका अध्ययन किया है क्या उसका यही फल है कि तू सदा दूसरोंको ठगता है और दूसरोंके द्वारा स्वयं नहीं ठगाया जाता ॥ १६० ॥ अथवा तू पर शब्द का अर्थ विपरीत समझता है - पर का अर्थ दूसरा न लेकर शत्रु लेता है सो हे सत्यघोष ! क्या सचमुच ही मैं तुम्हारा शत्रु हूँ ? ।। १६१ ॥ सद्भावना से पासमें आये हुए मनुष्योंको ठगनेमें क्या चतुराई है ? गोद आकर सोये हुएको मारने वालेका पुरुषार्थ क्या पुरुषार्थ है ? हे श्रीभूति ! तू महामोह रूपी पिशाचसे ग्रस्त हो रहा है, तू अपने भावी जीवनको नष्ट मत कर, मेरा रत्नोंका पिटारा मुझे दे दे || १६२ - १६३ || मेरे रत्न ऐसे हैं, इतने बड़े हैं और उनकी यह जाति है, यह सब तू जानता है फिर क्यों इस तरह उन्हें छिपाता है ? ।। १६४ ।। इस प्रकार वह भद्रमित्र प्रति दिन प्रातः कालके समय किसी वृक्षपर चढ़कर बार-बार रोता था सो ठीक ही हैं क्योंकि धीर वीर मनुष्य कठिन कार्यमें भी उद्यम नहीं छोड़ते ।। १६५ ।। बार-बार उसका एक-सा रोना सुनकर एक दिन रानीके मनमें विचार आया कि चूँकि 'यह सदा एक ही सदृश शब्द कहता है अतः यह उन्मत्त नहीं है, ऐसा समझ पड़ता है ।। १६६ ॥ रानीने यह विचार राजासे प्रकट किये और मंत्रीके साथ जुआ खेलकर उसका यज्ञोपवीत तथा उसके नामकी अंगूठी जीत ली ।। १६७ ।। तदनन्तर उसके
१ स्मृतिनिन्दितम् ख०, ग० । स्मृतिदूषितम् ल० । २ सुप्तानां हेतुः ( १ ) ल० : ४ - पुस्तकेऽयं श्लोक उज्झितः ।
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३ नित्ये ल० ।
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