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एकोनषष्टितम पर्व
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मधुराऽपि तयोर्जाता रामदत्ता त्वमुत्तमा । भद्रमित्रवणिक् सिंहचन्द्रस्ते स्नेहतोऽभवत् ॥ २१०॥ वारुणी पूर्णचन्द्रोऽयं त्वत्पिता भद्रबाहुतः । गृहीतसंयमोऽद्यान संवृत्तो गुरुरावयोः ॥ २१ ॥ माता ते दान्तमत्यन्ते दीक्षिता क्षान्तिरय ते । सिंहसेनोऽहिना दष्ट: करीन्द्रोऽशनिघोषकः ॥ २१२॥ भूत्वा वने श्रमन्मतो मामालोक्य जिघांसया । धावति स्म मयाऽऽकाशे स्थित्वाऽसौ प्रतिबोधितः ॥२१३॥ पूर्वसम्बन्धमाख्याय सर्व सम्यक प्रबुद्धवान् । संयमासंयम भव्यः स्वयं सद्यः समग्रहीत् ॥ २१४॥ शान्तचितः स निर्वेदो ध्यायन् कायाद्यसारताम्। कृत्वा मासोपवासादीन् शुष्कगत्राणि पारयन् ॥२१५॥ कुर्वन्नेवं महासत्त्वश्चिरं घोरतरं तपः । 'युपकेसरिणीनामसरितीर्थे कृशो जलम् ॥ २१६॥ पातुं प्रविष्टस्तं वीक्ष्य स सर्पश्चमरः पुनः जातः कुक्कुटसर्पोऽत्र तदास्यारुम मस्तकम् ॥ २१७ ॥ दशति स्म गजोऽप्येतद्विषेण विगतासुकः । समाधिमरणाज्जज्ञे सहस्रारे रविप्रिये ॥ २१८ ॥ विमाने श्रीधरो देवो धमिलश्चायुषः क्षये । तत्रैव वानरः सोऽभूत्सख्या तेन गजेशिनः ॥ २१९॥ हतः "कुक्कुटसर्पोऽपि तृतीयनरकेऽभवत् । गजस्य रदनौ मुक्ताश्चादायाधिकतेजसः ॥ २२० ॥ व्याधः शृगालवनाम धनमित्राय दत्तवान् । राजश्रेष्ठी च तौ ताश्च पूर्णचन्द्रमहीभुजे ॥ २२१॥ ददौ दन्तद्वयेनासौ व्यधात्पादचतुष्टयम् । पल्यकस्यात्मनो मुक्ताभिश्च हारमधाच तम् ॥ २२२ ॥ ईदर्श संसृतेर्भावं भावयन् को विधीन चेत् । रतिं तनोति भोगेषु भवाभावमभावयन ॥२२३ ॥
हिरण्यवती पोदनपुर नगरके राजा पूर्णचन्द्रके लिए दी गई-व्याही गई ॥२०८-२०६ ।। मृगायण ब्राह्मणकी स्त्री मधुरा भी मर कर उन दोनों--पूर्णचन्द्र और हिरण्यवतीके तू रामदत्ता नामकी पुत्री हुई थी, सेठ भद्रमित्र तेरे स्नेहसे सिंहचन्द्र नामका पुत्र हुआ था और वारुणीका जीव यह पूर्णचन्द्र हुआ है । तुम्हारे पिताने भद्रबाहुसे दीक्षा ली थी और उनसे मैंने दीक्षा ली थी इस प्रकार तुम्हारे पिता हम दोनोंके गुरु हुए हैं ।। २१०-२११ ।। तेरी माताने दान्तमतीके समीप दीक्षा धारण की थी और फिर हिरण्यवती मातासे तूने दीक्षा धारण की है। आज तुझे सब प्रकारकी शान्ति है। राजा सिंहसेनको साँपने डस लिया था जिससे मर कर वह वनमें अशनिघोष नामका हाथी हुआ। एक दिन वह मदोन्मत्त हाथी वनमें घूम रहा था, वहीं मैं था, मुझे देखकर वह मारनेकी इच्छासे दौड़ा, मुझे आकाशचारण ऋद्धि थी अतः मैंने आकाशमें स्थित हो पूर्वभवका सम्बन्ध बताकर उसे समझाया। वह ठीक-ठीक सब समझ गया जिससे उस भव्यने शीघ्र ही संयमासंयमदेशव्रत ग्रहण कर लिया ।।२१२-२१४॥अब उसका चित्त बिलकुल शान्त है, वह सदा विरक्त रहता हुआ शरीर आदि की निःसारताका विचार करता रहता है, लगातार एक-एक माहके उपवास कर सूखे पत्तोंकी पारणा करता है ॥२१५ । इस प्रकार महान् धैर्यका धारक वह हाथी चिरकाल तक कठिन तपश्चरण कर अत्यन्त दुर्बल हो गया । एक दिन वह यूपकेसरिणी नामकी नदीके किनारे पानी पीनेके लिए घुसा। उसे देखकर श्रीभूति-सत्यघोषके जीवने जो मरकर चमरी मृग और बादमें कुकुट सपे हुआ था उस हाथीके मस्तक पर चढ़कर उसे डस लिया। उसके विषसे मर गया, वह चूँकि समाधिमरणसे मरा था अतः सहस्रार स्वर्गके रविप्रिय नामक विमानमें श्रीधर नामका देव हुआ। धर्मिल ब्राह्मण, जिसे कि राजा सिंहसेनने श्रीभूतिके बाद अपना मन्त्री बनाया था आयुके अन्तमें मर कर उसी वनमें वानर हुआ था। उस वानरकी पूर्वोक्त हाथीके साथ मित्रता थी अतः उसने उस कुकुट सपेको मार डाला जिससे वह मरकर तीसरे नरकमें उत्पन्न हुन्छ शृगालवान् नामके व्याधने उस हाथीके दोनों दाँत तोड़े और अत्यन्त चमकीले मोती निकाले तथा धनमित्र नामक सेठके लिए दिये। राजश्रेष्ठी धनमित्रने वे दोनों दाँत तथा मोती राजा पूर्णचन्द्रके लिए दिये ॥२१६-२२१॥ राजा पूर्णचन्द्रने उन दोनों दाँतोंसे अपने पलंगके चार पाये बनवाये और मोतियोंसे हार बनवाकर पहिना ॥ २२२ ॥ वह मनुष्य सर्वथा बुद्धिरहित नहीं है अथवा
१ पयःकेसरिणी ख.। २ कृशोबलः ख०, ल। ३ पुरः ल०। ४ कुकुट ख०, ग.। ५ कुर्कुट ग.। ६ तृतीये नरके ख०। ७ विगता धीर्यस्य स विधीः मूर्ख इत्यर्थः । ८ अचिन्तयन् ।
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