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द्विषष्टितमं पर्व
कौलीन्यादनुरक्तत्वादभूत्सैकपतिः सती । भूपतेश्चैकभार्यत्वं प्रेमाधिक्याज्जगुर्जनाः ॥ ४१ ॥ रूपादिगुणसम्पत्तिस्तस्याः किं कथ्यते पृथक् । तस्य चेच्छक्रवच्छच्यां तस्यां प्रीतिरमानुषी ॥ ४२ ॥ दयावबोधयोर्मोक्ष इव सूनुस्तयोरभूत् । अर्ककीर्तिः स्वकीयभाप्रभासितजगत्त्रयः १ ॥ ४३ ॥ नीतिविक्रमयोर्लक्ष्मीरिव सर्वमनोहरा । स्वयम्प्रभाभिधानाऽऽसीत्प्रभेव विधुना सह ॥ ४४ ॥ मुखेनाम्भोजमक्षिभ्यामुत्पलं मणिदर्पणम् । त्विषा कान्त्या विधुं जित्वा बभौ सा भ्रूपताकया ॥ ४५ ॥ उत्पन्नं यौवनं तस्यां लतिकायां प्रसूनवत् । खगकामिषु पुष्पेषुज्वरश्चोत्थापितस्तया ॥ ४६ ॥ आपाण्डुगण्डभाभासिवक्त्रलोलविलोचना । मध्याङ्गकार्थसम्भूतसम्भ्रान्त्येव स्वयम्प्रभा ॥ ४७ ॥ तन्ब्या रोमावली तन्वी हरिनीलरुचिर्व्यभात् । आरुरुक्षुरिवोद्धत्या तुङ्गपीनघनस्तनौ ॥ ४८ ॥ अनालीढमनोजापि व्यकतद्विक्रियेव सा । सम्पन्नयौवनेनैव जनानामगमद्दशम् । ४९ ॥ अथान्येद्युर्जगन्नन्दनाभिनन्दनचारणौ । स्थितौ मनोहरोद्याने ज्ञात्वा पतिनिवेदकात् ॥ ५० ॥ 'चतुरङ्गबलोपेतः सपुत्रोऽन्तः पुरावृतः । गत्वाभिवन्द्य सद्धर्मश्रवणानन्तरं परम् ॥ ५१ ॥ सम्यग्दर्शनमादाय दानशीलादि वादरात् । प्रणम्य चारणौ भक्त्या प्रत्येत्य प्राविशत्पुरम् ॥ ५२ ॥ स्वयम्प्रभापि सद्धर्मं तत्रादायैकदा मुदा । पर्वोपवास प्रम्लानतनुरभ्यर्च्य वार्हतः ॥ ५३ ॥
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टीने अनेक ऋद्धियोंसे युक्त राजलक्ष्मीको उसका परिकर - दासी बना दिया था सो ठीक ही है। क्योंकि अलभ्य वस्तुके विषयमें मनुष्य क्या नहीं करता है ? ।। ४० ।। बड़े कुलमें उत्पन्न होनेसे तथा अनुराग से युक्त होनेके कारण उस पतिव्रताके एक पतिव्रत था और प्रेमकी अधिकता से उस राजा के एकपत्नीव्रत था ऐसा लोग कहते हैं ।। ४१ ।। जिस प्रकार इन्द्राणीमें इन्द्रकी लोकोत्तर प्रीति होती है उसी प्रकार उसमें ज्वलनजदीकी लोकोत्तर प्रीति थी फिर उसके रूपादि गुणोंका पृथक् पृथक् क्या वर्णन किया जावे ।। ४२ ।। जिस प्रकार दया और सम्यग्ज्ञानके मोक्ष होता है उसी प्रकार उन दोनोंके अपनी कीर्तिकी प्रभासे तीनों लोकोंको प्रकाशित करने वाला अर्ककीर्ति नामका पुत्र उत्पन्न हुआ ।। ४३ ।। जिस प्रकार नीति और पराक्रमके लक्ष्मी होती है उसी प्रकार उन दोनों सबका मन हरनेवाली स्वयंप्रभा नामकी पुत्री भी उत्पन्न हुई जो अर्ककीर्ति के साथ इस प्रकार बढ़ने लगी जिस प्रकार कि चन्द्रमा के साथ उसकी प्रभा बढ़ती है ॥ ४४ ॥ वह मुखसे कमलको, नेत्रोंसे उत्पलको आभासे मणिमय दर्पणको और कान्तिसे चन्द्रमाको जीतकर ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो भौंहरूप पताका ही फहरा रही हो ।। ४५ ।। लतामें फूलके समान ज्योंही उसके शरीरमें यौवन उत्पन्न हुआ त्योंही उसने कामी विद्याधरोंमें कामज्वर उत्पन्न कर दिया ।। ४६ ।। कुछ कुछ पीले और सफेद कपोलोंकी कान्तिसे सुशोभित मुखमण्डल पर उसके नेत्र बड़े चाल हो रहे थे जिनसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो कमरको पतली देख उसके टूट जानेके भय से ही नेत्रोंको चञ्चल कर रही हो ।। ४७ ।। उस दुबली पतली स्वयम्प्रभाकी इन्द्रनील मणि के समान कान्तिवाली पतली रोमावली ऐसी जान पड़ती थी मानो उछलकर ऊँचे स्थूल निविड़ स्तनों पर चढ़ना ही चाहती हो ॥ ४८ ॥ यद्यपि कामदेवने उसका स्पर्श नहीं किया था तथापि प्राप्त हुए यौवनसे ही वह कामदेवके विकारको प्रकट करती हुई-सी मनुष्योंके दृष्टिगोचर हो रही थी ॥ ४६ ॥
और
अथानन्तर किसी एक दिन जगन्नन्दन और नाभिनन्दन नामके दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज मनोहर नामक उद्यानमें आकर विराजमान हुए । उनके श्रागमनकी खबर देनेवाले वनपालसे यह समाचार जानकर राजा चतुरङ्ग सेना, पुत्र तथा अन्तःपुरके साथ उनके समीप गया । वहाँ वन्दना कर उसने श्रेष्ठ धर्मका स्वरूप सुना, बड़े आदरसे सम्यग्दर्शन तथा दान शील आदि व्रत ग्रहण किये, तदनन्तर भक्तिपूर्वक उन चारणऋद्धिधारी मुनियोंको प्रणाम कर वह नगर में वापिस आ गया ।। ५०-५२ ।। स्वयंप्रभाने भी वहाँ समीचीन धर्म ग्रहण किया। एक दिन उसने पर्वके समय
१ दिगन्तरः ज० ।
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