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त्रिषष्टितम पर्व
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अगत्या क्षणिकत्वं चेत्तयोरभ्युपगम्यते । तवाभ्युपगमत्यागः पक्षसिद्धिश्च मे भवेत् ॥ ५६ ॥ ततो भवन्मतं भद्र बौद्धकैः परिकल्पितम् । कल्पनामात्रमत्रस्थं मा कृथास्त्वं वृथा श्रमम् ॥५७।। इत्याकर्ण्य सदोक्तं तबुधो वज्रायुधोऽभणत् । शृणु चिरा निधायोच्चैर्माध्यस्थं प्राप्य सौगत ॥ ५८ ॥ जिनेन्द्रवदनेन्दूस्थस्याद्वादामृतपायिनाम् । स्वकर्मफलभोगादिग्यवहारविरोधिनम् ॥ ५९ ।। क्षणिकैकान्तदुर्वादमवलम्ब्य प्ररूपितः । त्वया दोषो म बाधायै कल्पते धर्मधर्मिणोः ॥१०॥ संशाप्रशास्वचिह्वादिभेदैभिन्नत्वमेतयोः । एकत्वं चापृथक्त्वार्पणनयैकावलम्बनात् ॥ ६१ ॥ कार्यकारणभावेन कालत्रितयवर्तिनाम् । स्कन्धानामव्यवच्छेदसन्तानोऽभ्युपगम्यते ।। ६२॥ स्कन्धानां क्षणिकस्वेऽपि सद्भावात्कृतकर्मणः । युक्तः फलोपभोगादिरस्माकमिति ते गतिः ॥ ६३ ॥ एतेन परिहारेण भवतः पक्षरक्षणम् । वातानितरुबन्धेन रोधो वा मत्तदन्तिनः ॥ ६४ ॥ सन्तानिभ्यः ससन्तानः पृथक किंवाऽपृथग्मतः। पृथक्त्वे किं न पश्यामःसन्तानिभ्यः पृथक न तत्॥६५॥ भथेष्टोऽभ्यतिरेकेण सन्तानिभ्यः स्वकल्पितः । सन्तानः शून्यतां तस्य सुगतोऽपि न वारयेत् ॥६६॥
बन्ध नहीं हो सकेगा और जब बन्ध नहीं होगा तब मोक्षके अभावको कौन रोक सकेगा ? ॥५५ ।। यदि कुछ उपाय न देख पर्याय-पर्यायीको क्षणिक मानना स्वीकृत करते हैं तो आपके गृहीत पक्षका त्याग और हमारे पक्षकी सिद्धि हो जावेगी ॥५६॥ इसलिए हे भद्र ! आपका मत नीच बौद्धोंके द्वास कल्पित है तथा कल्पना मात्र है इसमें आप व्यर्थ ही परिश्रम न करें ॥५७ ॥
इस प्रकार उसका कहा सुनकर विद्वान् वनायुध कहने लगा कि 'हे सौगत ! चित्तको ऊंचा रखकर तथा माध्यस्थ्य भावको प्राप्त होकर सुन ॥५८॥ अपने द्वारा किया हुआ कर्म और उसके फलको भोगना आदि व्यवहारसे विरोध रखने वाले क्षणिकैकान्तरूपी मिथ्यामतको लेकर तूने जो दोष बतलाया है वह जिनेन्द्र भगवान्के मुखरूपी चन्द्रमासे निकले हुए स्याद्वाद रूपी अमृतका पान करने वाले जैनियोंको कुछ भी बाधा नहीं पहुंचा सकता। क्योंकि धर्म और धमीमें-गुण और गुणीमें संज्ञा-नाम तथा बुद्धि आदि चिह्नोंका भेद होनेसे भिन्नता है और 'गुण गुणी कभी अलग नहीं हो सकते' इस एकत्व नयका अवलम्बन लेनेसे दोनोंमें अभिन्नता है-एकता है। भावार्थद्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा गुण और गुणी, अथवा पर्याय और पर्यायीमें अभेद है-एकता है परन्तु व्यवहार नयकी अपेक्षा दोनोंमें भेद है। अनेकता है॥५६-६१ ॥ भूत भविष्यत् वर्तमान रूप तीनों कालोंमें रहने वाले स्कन्धोंमें परस्पर कारण-कार्य भाव रहता है अर्थात् भूत कालके स्कन्धोंसे वर्तमान कालके स्कन्धोंकी उत्पत्ति है इसलिए भूत कालके स्कन्ध कारण हुए और वर्तमान कालके स्कन्ध कार्य हुए। इसी प्रकार वर्तमान कालके स्कन्धोंसे भविष्यत् काल सम्बन्धी स्कन्धोंकी उत्पत्ति होती है अतः वर्तमान काल सम्बन्धी स्कन्ध कारण हुए और भविष्यत् कालसम्बन्धी स्कन्ध कार्य हुए। इस प्रकार कार्य कारण भाव होनेसे इनमें एक अखण्ड सन्तान मानी जाती है। स्कन्धोंमें यद्यपि क्षणिकता है तो भी सन्तानकी अपेक्षा किये हुए कर्मका सद्भाव रहता है। जब उसका सद्भाव रहता है तब उसके फलका उपभोग भी हमारे मतमें सिद्ध हो जाता है। ऐसा यदि आपका मत है तो इस परिहारसे आपको अपने पक्षकी रक्षा करना एरण्डके वृक्षसे मत्त हाथीके बांधनेके समान है । भावार्थ-जिस प्रकार एरण्डके वृक्षसे मत्त हाथी नहीं बांधा जा सकता उसी प्रकार इस परिहारसे भापके पक्षकी रक्षा नहीं हो सकती ॥६२-६४॥ हम पूछते हैं कि जो संतान स्कन्धोंसे उत्पन्न हुई है वह संतान संतानीसे भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो हम उसे सन्तानीसे पृथक् क्यों नहीं देखते हैं ? चूंकि वह हमें पृथक् नहीं दिखाई देती है इसलिए संतानीसे भिन्न नहीं है ॥ ३५ ॥
दि आप अपनी कल्पित संतानको संतानीसे अभिन्न मानने हैं तो फिर उसकी शून्यताको बुद्ध भी नहीं रोक सकते; क्योंकि संतानी क्षणिक है अतः उससे अभिन्न रहने वाली संतान भी क्षणिक ही
१ कल्पनामात्रमात्रास्थं ख०, ग० । २ सौगतः ख०, ग० । ३ तद्भावात् ल० (७।
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