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त्रिषष्टितम पर्व
१८१ बनान्यपि मनोजाय त्रिजगद्विजिगीषवे । यस्मिन् पुष्पकरे स्वैरं ददुः सर्वस्वमात्मनः ॥७९॥ तस्मिन् काले बने रन्तुं 'स्वदेवरमणे मतिम् । ज्ञात्वा सुदर्शनावक्त्राद्धारिण्याद्यात्मयोषिताम् ॥८॥ औत्सुक्यासद्वनं गत्वा सुदर्शनसरोवरे। जलक्रीडां स्वदेवीभिः प्रवर्तयति भूभुजि२॥८॥ अपिधाय सरः सद्यः कश्चिद्विद्याधरः खलः । शिलया नागपाशेन तमबम्नान्नृपोऽप्यसौ ॥ ८२ ॥ शिलां हस्ततलेनाहत्सा गता शतखण्डताम् । विद्याधरोऽपि दुष्टात्मा तदानी प्रपलायितः ॥८॥ एष पूर्वभवे शत्रुविद्युइंष्ट्राभिधानकः । वज्रायुधोऽपि देवीभिः सह स्वपुरमागमत् ॥ ८४ ॥ एवं सुखेन भूभर्तुः काले गच्छत्ययोदयात् । निधयो नव रत्नानि चतुर्दश तदाऽभवन् ॥८५॥ चक्रवर्तिश्रियं प्राप्य निविष्ट सिंहविष्टरे । कश्चिद्विद्याधरो भीतः शरणं तमुपागतः ॥८६॥ तस्यैवानुपदं काचिदुस्खातासिलता खगी। क्रोधानलशिखेवागात् द्योतयन्ती "सभावनीम् ॥८॥ सस्याश्चानुपदं कश्चित्स्थविरः स गदाधरः । समागत्य महाराज दुरात्मैष खगाधमः ॥ ८८॥ स्वं दुष्टनिग्रहे शिष्टपालने च निरन्तरम् । जागसि निग्रहः कार्यस्त्वयास्यान्यायकारिणः ॥ ८९ ॥ कोऽसावन्याय इत्येतत् ज्ञातुमिच्छा तवास्ति चेत् । वदामि देव सम्यक् त्वं प्रणिधाय मनः शृणु ॥१०॥ "जम्बूद्वीपसुकच्छाख्यविषये 'खचराचले । श्रेण्यामुचरदिग्जायां शुक्ररप्रभपुराधिपः ॥११॥ खगाधीडिन्द्रदत्ताख्यः प्रिया तस्य यशोधरा । तयोरहं सुतो वायुवेगो विद्याधरैर्मतः ॥ १२ ॥
तत्र किन्नरगीताख्यनगराधिपतिः खगः। चित्रचूलः सुता तस्य सुकान्ता मे प्रियाऽभवत् ॥१३॥ उत्पन्न करनेवाले उस चैत्रके महीनेमें फूलोंसे लदे हुए वन ऐसे जान पड़ते थे मानो त्रिजगद्विजयी कामदेवके लिए अपना सर्वस्व ही दे रहे हों।७७-७६ ।। उस समय उसने सुदर्शना रानीके मुखसे तथा धारिणी आदि अपनी स्त्रियोंकी उत्सुकतासे यह जान लिया कि इस समय इनकी अपने देवरमण नामक वनमें क्रीड़ा करनेकी इच्छा है इसलिए वह उस वनमें जाकर सुदर्शन नामक सरोवरमें अपनी रानियोंके साथ जलक्रीड़ा करने लगा ॥८०-८१॥ उसी समय किसी दुष्ट विद्याधरने आकर उस सरोवरको शीघ्र ही एक शिलासे ढक दिया और राजाको नागपाशसे बाँध लिया। राजा वायुधने भी अपने हाथकी हथेलीसे उस शिला पर ऐसा आघात किया कि उसके सौ टुकड़े हो गये । दुष्ट विद्याधर उसी समय भाग गया। यह विद्याधर और कोई नहीं था-पूर्वभवका शत्रु विद्यु
दंष्ट्र था। वनायुध अपनी रानियोंके साथ अपने नगरमें वापिस आ गया। इस प्रकार पुण्योदयसे राजाका काल सुखसे बीत रहा था। कुछ समय बाद नौ निधियाँ और चौदह रन प्रकट हुए । २८५॥ वह चक्रवर्तीकी विभूति पाकर एक दिन सिंहासन पर बैठा हुआ था कि उस समय भयभीत हुआ एक विद्याधर उसकी शरणमें आया ॥८६॥ उसके पीछे ही एक विद्याधरी हाथमें तलवार लिये क्रोधाग्निकी शिखाके समान सभाभूमिको प्रकाशित करती हुई आई ।। ८७ ॥ उस विद्याधरीके पीछे ही हाथमें गदा लिये एक वृद्ध विद्याधर आकर कहने लगा कि हे महाराज! यह विद्याधर दुष्ट नीच है, आप दुष्ट मनुष्योंके निग्रह करने और सत्पुरुषोंके पालन करने में निरन्तर जागृत रहते हैं इसलिए आपको इस अन्याय करने वालेका निग्रह अवश्य करना चाहिये ।। ८८-८६ ॥ इसने कौन-सा अन्याय किया है यदि आपको यह जाननेकी इच्छा है तो हे देव ! मैं कहता हूँ, आप चित्तको अच्छी तरह स्थिर कर सुनें ॥१०॥
जम्बूद्वीपके सुकच्छ देशमें जो विजयार्ध पर्वत है उसकी उत्तरश्रेणीमें एक शुक्रप्रभ नामका नगर है। वहाँ विद्याधरोंके राजा इन्द्रदत्त राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम यशोधरा था। मैं उन दोनोंका पुत्र हूँ, वायुवेग मेरा नाम है और सब विद्याधर मुझे मानते हैं ॥६१-६२ ॥ उसी देश में किमरगीत नामका एक नगर है । उसके राजाका नाम चित्रचूल है। चित्रचूलकी पुत्री सुकान्ता
१ स्वे देव-क०, ख०, ग०, ५०, म०, । २ भूभुजे ल०। ३ पुण्योदयात् । ४ चक्रवर्तिश्रियः म०, ल०। ५ सभावनिम् ग० । सभापतिम् ल०।६ जागर्ति ल०। ७ जम्बूद्वीपे क., ख, ग, घ०, म । ८ खेचराचले ख., ग०, म. । खेचरालये ल०। ६ चित्रसेनः म०, ल। १० भवेत् क०, ग०, प० ।
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