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महापुराणे उत्तरपुराणम् अन्योन्यदुःखहेतुत्वादेतयोः पश्यतामपि । हिंसानन्दादिक द्रष्टुमयोग्यं धर्मवेदिनाम् ॥१५॥ इति स्मरंश्च भव्यानां बहूनामुपशान्तये। स्वकीयपुत्रमाहात्म्यप्रकाशनधिया च तत् ॥ १५४ ॥ युद्धं घनरथाधीशो लोकमानो दृढक्रुधोः। स मेघरथमप्राक्षीत् बलमेतत्कुतोऽनयोः ॥१५५॥ इति तेन स पृष्ठः सन् विशुद्धावधिलोचनः । तयोस्तादृशयुद्धस्य हेतुमेवमुदाहरत् ॥१५६॥ अस्मिन्नैरावते रत्नपुरे शाकटिको ऋधा । सोदयों भद्रधन्याख्यौ बलीवदनिमित्ततः ॥१५७॥ पापिष्ठौ 'श्रीनदीतीरे हत्वा मृत्वा परस्परम् । काञ्चनाख्यसरितीरे श्वेतताम्नादिकर्णकौ ॥१५॥ स्वपूर्वजन्मपापेन जायतां वनवारणौ । तत्रापि भवसम्बद्धक्रोधाधुध्वा मृतिं गतौ ॥१५९॥ अयोध्यापुरवास्तव्यो नन्दिमित्रोऽस्ति २बल्लवः । महिषीमण्डले तस्य जज्ञाते गवलोत्तमौ ॥१६॥ दृप्तौतित्रापि संरम्भसम्भृतौ तौ परस्परम् । बभूवतुश्विरं युद्ध्वा शृङ्गानाकृष्टजीवितौ ॥१६॥ तस्मिन्नेव पुरे शक्तिवरशब्दादिसेनयोः । मेषावभूतां तौ राजपुत्रयोर्वज्रमस्तकौ ॥१६२॥ युद्ध्वाऽन्योन्यं गतप्राणौ सञ्जातौ कुक्कुटाविमौ । स्वविद्याध्यासितावेतौ गूढौ योधयतः खगौ ॥१६३॥ कारणं किं तयोः कौ च तो चेच्छणु महीपते। जम्बूपलक्षिते द्वीपे भरते खचराचले ॥१६॥ पुरेऽभूदुत्तरश्रेण्यां कनकादिनि भूपतिः । खगो गरुडवेगाख्यो तिषेणास्य वल्लभा ॥ १६५॥ तिलकान्तदिविश्चन्द्रतिलकश्च सुतौ तयोः । सिद्धकूटे समासीनं चारणद्वन्द्वमाश्रितौ ॥१६६॥ स्तुत्वा स्वजन्मसम्बन्धं सप्रश्रयमपृच्छताम् । ज्येष्ठो मुनिस्तयोरेवं तत्प्रपञ्चमभाषत ॥१६७॥
दोनों मुर्गों के लिए दुःखका कारण था तथा देखने वालोंके लिए भी हिंसानन्द आदि रौद्रध्यान करने वाला था अतः धर्मात्माओंके देखने योग्य नहीं है ।। १५०-१५३ ।। ऐसा विचार कर बहुतसे भव्य जीवोंको शान्ति प्राप्त कराने तथा अपने पुत्रका माहात्म्य प्रकाशित करनेकी बुद्धिसे राजा घनरथ उन दोनों क्रोधी मुगोंका युद्ध देखते हुए मेघरथसे पूछने लगे कि इनमें यह बल कहाँसे आया ? ।। १५४-१५५ । इस प्रकार घनरथके पूछने पर विशुद्ध अवधिज्ञानरूपी नेत्रोंको धारण करने वाला मेघरथ, उन दोनों मुर्गोके वैसे युद्धका कारण कहने लगा ॥ १५६ ।। उसने इस प्रकार कहना शुरू किया कि इसी जम्बूद्वीपके ऐरावत क्षेत्र में एक रत्नपुर नामका नगर है उसमें भद्र और धन्य नामके दो सगे भाई थे। दोनों ही गाड़ी चलानेका कार्य करते थे। एक दिन वे दोनों ही पापी श्रीनदीके किनारे बैलके निमित्तले लड़ पड़े और परस्पर एक दूसरेको मार कर मर गये। अपने पूर्व जन्मके पामसे मर कर वे दोनों काञ्चन नदी किनारे श्वेतकर्ण और ताम्रकर्ण नामके जंगली हाथी हुए। वहाँपर भी वे दोनों पूर्व भवके बँधे हुए क्रोधसे लड़कर मर गये ॥ १५७-१५६ ॥ मर कर अयोध्या नगरमें रहने वाले नन्दिमित्र नामक गोपालकी भैंसोंके झुण्ड में दो उत्तम भैते हुए ।। १६० ॥ दोनों ही अहंकारी थे अतः परस्परमें बहुत ही कुपित हुए और चिरकाल तक युद्धकर सींगोंके अग्रभाग की चोटसे दोनों के प्राण निकल गये॥१६१॥ अबकी बार वे दोनों उसी अयोध्या नगरमें सेन और शब्दवरसेन नामक राजपुत्रोंके मेढा हुए। उनके मस्तक वनके समान मजबूत थे। मेढ़े भी परस्परमें लड़े और मर कर ये मुर्गे हुए हैं। अपनी अपनी विद्याओंसे युक्त हए दो विद्याधर छिप कर इन्हें लड़ा रहे हैं ।। १६२ - १६३ ।। उन विद्याधरोंके लड़ानेका कारण क्या है ?
और वे कौन हैं ? हे राजन् , यदि यह आप जानना चाहते हैं तो सुनें। इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रके विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणी पर एक कनकपुर नामका नगर है। उसमें गरुडवेग नामका राजा राज्य करता था। धृतिषणा उसकी स्त्रीका नाम था। उन दोनोंके दिवितिलक और चन्द्रतिलक नामके दो पुत्र थे। एक दिन ये दोनों ही पुत्र सिद्धकूट पर विराजमान चारणयुगलके पास पहुँचे ॥१६४-१६६ ॥ और स्तुति कर बड़ी विनयके साथ अपने पूर्वभवके सम्बन्ध पूछने लगे। उनमें जो बड़े मुनि थे वे इस प्रकार विस्तारसे कहने लगे ॥१६७॥
१ नदीतीर्थे ख० । गोपालः ।
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