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महापुराणे उत्तरपुराणम्
देव्यौ विमलमत्याख्यगणिनीं ते समाश्रिते । भदीक्षेतां सहैतेन युक्तं तस्कुलयोषिताम् ॥ १२४॥ सिद्धाचले कदाचितं प्रतिमायोगधारिणम् । खगो वसन्तसेनाया बद्धवैरेण मैथुनः ॥ १२५ ॥ विलोक्य चित्रचूलाख्यः कोपारुणितवीक्षणः । प्रारिसुरुपसर्गाय तर्जितः खेचरेश्वरैः ॥ १२६ ॥ अन्यदा रत्नसेनाख्यो नृपो रत्नपुराधिपः । दत्त्वाऽऽप पञ्चकाश्चर्य भिक्षां कनकशान्तये ॥१२७॥ उचित्रचूलः पुनश्चास्य प्रतिमायोगधारिणः । बने सुरनिपाताख्ये विघातं कर्तुमुद्यतः ॥ १२८ ॥ तस्मिन् कोपं परित्यज्य घातिघाता यतीश्वरः । केवलावगमं प्रापक्काऽपि कोपो न धीमताम् ॥ १२९ ॥ देवागमन मालोक्य भीत्वा स खगपापकः । तमेव शरणं यातो नीचायां वृत्तिरीदृशी ॥ १३० ॥ अथ वज्रायुधाधीशो नप्तृकैवल्यदर्शनात् । लब्धबोधिः सहस्नायुधाय राज्यं प्रदाय तत् ॥१३१॥ दीक्षां क्षेमङ्कराख्यान "तीर्थकर्तुरुपान्तगः । प्राप्य सिद्धिगिरौ वर्षप्रतिमायोगमास्थितः ॥ १३२॥ तस्य पादौ समालम्ब्य वाल्मीकं बह्नवर्तत । वर्द्धयन्ति महात्मानः पादलमानपि द्विषः ॥ १३३ ॥ व्रतिनं तं व्रतत्योऽपि मादर्वं वा समीप्सवः । गाढं रूढाः समासेदुराकण्ठमभितस्तनुम् ॥ १३४ ॥ अश्वग्रीवसुतौ रत्नकण्ठरत्नायुधाभिधौ । भ्रान्त्वा 'जन्मन्यतिबलमहाबलसमाख्यया ॥ १३५ ॥ भूत्वाऽसुरौ तमभ्येत्य तद्विघातं चिकीर्षुकौ । रम्भातिलोरामे दृष्ट्वा तर्जयित्वाऽतिभक्तितः ॥ १३६॥
करा देती है उसी प्रकार वसन्तलक्ष्मीने राजा कनकशान्तिका तपोलक्ष्मी के साथ समागम करा दिया था ।। १२३ ।। इसीके साथ इसकी दोनों स्त्रियोंने भी विमलमती आर्यिका के पास जाकर दीक्षा धारण कर ली सो ठीक ही है क्योंकि कुलीन स्त्रियोंको ऐसा करना उचित ही है ।। १२४ ॥ किसी समय कनकशान्ति मुनिराज सिद्धाचलपर प्रतिमायोगसे विराजमान थे वहीं पर उनकी स्त्री वसन्तसेनाका भाई चित्रचूल नामका विद्याधर आया । पूर्वजन्मके बंधे हुए बैरके कारण उसकी आँखे क्रोधसे लाल हो गई । वह उपसर्ग प्रारम्भ करना ही चाहता था कि विद्याधरों के अधिपतिने ललकार कर उसे भगा दिया ।। १२४ - १२६ ।। किसी एक दिन रत्नपुर के राजा रत्नसेनने मुनिराज कनकशान्तिके लिए आहार देकर पञ्चर्य प्राप्त किये ।। १२७ ।। किसी दूसरे दिन वही मुनिराज सुरनिपात नामके नमें प्रतिमायोग धारणकर विराजमान थे। वह चित्रचूल नामका विद्याधर फिरसे उपसर्ग करनेके लिए तत्पर हुआ ॥ १२८ ॥ परन्तु उन मुनिराजने उसपर रंचमात्र भी क्रोध नहीं किया बल्कि घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि बुद्धिमानोंको किसीपर क्रोध करना उचित नहीं है ।। १२६ ॥ केवलज्ञानका उत्सव मनानेके लिए देवोंका आगमन हुआ । उसे देख वह पापी विद्याधर डरकर उन्हीं केवली भगवान्की शरण में पहुंचा सो ठीक ही है क्योंकि नीच मनुष्यों की प्रवृत्ति ऐसी ही होती है ॥ १३० ॥
अथानन्तर नातीके केवलज्ञानका उत्सव देखनेसे वज्रायुध महाराजको भी आत्मज्ञान हो गया जिससे उन्होंने सहस्रायुधके लिए राज्य दे दिया और क्षेमंकर तीर्थकरके पास पहुँचकर दीक्षा धारण कर ली । दीक्षा लेनेके बाद ही उन्होंने सिद्धिगिरि नामक पर्वत पर एक वर्षके लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया ।। १३१ - १३२ ।। उनके चरणोंका आश्रय पाकर बहुतसे बमीठे तैयार हो गये सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुष चरणोंमें लगे शत्रुओंको भी बढ़ाते हैं ।। १३३ ।। उनके शरीरके चारों ओर सघन रूपसे जमी हुई लताएं भी मानो उनके परिणामोंकी कोमलता प्राप्त करनेके लिए ही उन मुनिराज के पास तक जा पहुँची थीं ॥ १३४ ॥ अश्वग्रीवके रत्नकण्ठ और रत्नायुध नामके जो दो पुत्र थे वे चिरकाल तक संसारमें भ्रमण कर अतिबल और महाबल नामके असुर हुए। वे दोनों ही असर उन मुनिराजका विघात करनेकी इच्छासे उनके सम्मुख गये परन्तु रम्भा और तिलोत्तमा नामकी देवियोंने देख लिया अतः डांटकर भगा दिया तथा दिव्य गन्ध आदिके द्वारा बड़ी भक्ति उनकी पूजा की । पूजाके बाद वे देवियां स्वर्ग चली गई। देखो कहाँ दो स्त्रियाँ और
१ तर्जितं ख० । २ खचरेश्वरैः ल० । ३ रत्नचूलः ख० । ४ नप्तृकेवल-ल० । ५-ख्यांत- ख० । ६ जन्मानि ल० ।
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