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त्रिषष्टितमं पर्व
१८७
धातकीखण्डप्राग्भागे पुरमैरावते भुवि । तिलकाख्यं पतिस्तस्य वभूवाभयघोषवाक् ॥१६८॥ सुवर्णतिलका तस्य देवी जातौ सुतौ तयोः । विजयोऽन्यो जयन्तश्च सम्पन्ननयविक्रमौ ॥१६॥ खगाद्रिदक्षिणश्रेणीमन्दाराख्यपुरेशिनः । शङ्कस्य जयदेव्याश्च पृथिवीतिलका सुता ॥१७७॥ तस्य त्वभयघोषस्य साऽभवत्प्राणवल्लभा। १एक संवत्सरं तस्यामेवासक्तेऽन्यदा विभौ ॥१७॥ सुवर्णतिलका सार्द्ध विहतं भवता वनम् । विष्टीति नृपति चञ्चत्कान्त्यादितिलकोऽवदत् ॥१७२॥ तच्चेटिकावचः श्रुत्वा तदेप्सुमभिधाय तम् । पृथिवीतिलका रम्यं वनमत्रैव दर्शये ॥१७३॥ इति तत्कालज सर्व वनवस्तु प्रदर्य सा । तेन शक्नुवती रोखं मानभङ्गन पीडिता ॥१७॥ सुमतिं गणिनीं प्राप्य प्रव्रज्यामाददे सती। हेतुरासन्नभव्यानां मानश्च हितसिद्धये ॥१७५॥ भक्त्या दमवराख्याय दत्वा दानं महीपतिः। आश्चर्यपञ्चकं प्राप्य कदाचिदभयाह्वयः ॥१७६॥ अवाप्य सह सूनुभ्यामनन्तगुरुसनिधिम् । लब्धबोधिः समादत्त दुस्सहं स महाव्रतम् ॥१७७॥ कारणं तीर्थकृन्नाम्नो भावयित्वाऽऽयुषोऽवधौ । सम्यगाराध्य पुत्राभ्यामच्युतं कल्पमात्मवान् ॥१७८॥ द्वाविंशत्यब्धिमानायुर्भुक्त्वा भोगांश्च तौ ततः। जीवितान्ते भवन्तौ तौ जातौ नृपकुमारकौ ॥१७९॥ इति तत्सम्यगाकर्ण्य भगवन्नावयोः पिता । क्वेति पृष्टो मुनिस्ताभ्यामब्रवीदिति तत्कथाम् ॥ १८ ॥ ततः प्रत्युत्य ४कल्पान्ताद हेमाङ्गदमहीपतेः । सुतोऽभून्मेघमालिन्यां देव्यां घनरथाह्वयः॥१८॥ इदानीं पुण्डरीकिण्यां युद्धं कुक्कुटयोरसौ। "प्रेक्षमाणः स्थितः श्रीमान् देवीसुतसमन्वितः ॥ १८२ ॥
धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व भागमें जो ऐरावत क्षेत्र है उसकी भूमिपर एक तिलक नामका नगर है। उसके स्वामीका नाम अभयघोष था और उनकी स्त्रीका नाम सुवर्णतिलक था। उन दोनोंके विजय और जयन्त नामके दो पुत्र थे। वे दोनों ही पुत्र नीति और पराक्रमसे सम्पन्न थे। इसी क्षेत्रके विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें स्थित मन्दारनगरके राजा शङ्ख और उनकी रानी जयदेवीके पृथिवीतिलका नामकी पुत्री थी ॥ १६८-१७० ॥ वह राजा अभयघोषकी प्राणवल्लभा हुई थी। राजा अभयघोष उसमें आसक्त होनेसे एक वर्ष तक उसीके यहाँ रहे आये ॥ १७१ । एकदिन चश्चत्कान्तितिलका नामकी दासी आकर राजासे कहने लगी कि रानी सुवर्णतिलका आपके साथ वनमें विहार करना चाहती हैं। १७२ ।। चेटीके वचन सुनकर राजा वहाँ जाना चाहता था परन्तु पृथिवीतिलका राजासे मनोहर वचन बोली और कहने लगी कि वह यहीं दिखलाये देती हूँ ॥ १७३ ॥ ऐसा कह कर उसने उसासमयमें होनेवाली वनकी सब वस्तुएँ दिखला दी और इस कारण वह राजाको रोकनेमें समर्थ हो सकी। रानी सुवर्णतिलका इस मानभङ्गसे बहुत दुःखी हुई। अन्त में उस सतीने सुमति नामक आर्यिकाके पास दीक्षा ले ली सो ठीक ही है क्योंकि निकट भव्यजीवोंका मानहित सिद्धिका कारण हो जाता है ।। १७४-१७५ ॥ अभयघोष राजाने किसी दिन दमवर नामक मुनिराजके लिए भक्ति-पूर्वक दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥ १७६ ॥ वह एक दिन अपने दोनों पुत्रोंके साथ अनन्त नामक गुरुके समीप गया था वहाँ उसे आत्मज्ञान हो गया जिससे उसने कठिन महाव्रत धारण कर लिये ॥ १७७ ॥ तीर्थकर नामकर्मके बन्धमें कारणभूत सोलह कारण भावनाओंका चिन्तवन किया
और आयुके अन्तमें समाधिमरण कर अपने दोनों पुत्रोंके साथ अच्युतस्वर्गमें देव हुआ ॥ १७८ ।। बाईस सागरकी आयु पाकर वे तीनों वहाँ मनोवाञ्छित भोग भोगते रहे। आयुके अन्तमें वहाँसे च्युत होकर दोनों ही विजय और जयन्त राजकुमारके जीव तुम दोनों उत्पन्न हुए हो ।। १७६ ।। यह सब अच्छी तरह सुनकर वे दोनों ही फिर पूछने लगे कि हे भगवन् ! हमारे पिता कहाँ हैं ? ऐसा पूछे जानेपर वे पिताकी कथा इस प्रकार कहने लगे-॥ १८० ॥ उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिताका जीव अच्युतस्वर्गसे च्युत होकर हेमाङ्गद राजाकी मेघमालिनी नामकी रानीके धनरथ नामका पुत्र हुआ है वह श्रीमान् इस समय रानियों तथा पुत्रोंके साथ पुण्डरीकिणी नगरीमें मुगोंका युद्ध
१ एक म०, ल० । २ वश् कान्तौ कामयते इच्छतीत्यर्थः । ३ ताम् क०, ख०, ग०, घ०, म०, ल। ४ कल्पान्ते ल०। ५ प्रेक्ष्यमाणः ख.।
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