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त्रिषष्टितमं पर्व
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गन्धादिभिर्यतिं दिव्यैरभ्यर्च्य दिवमीयतुः । क वा ते काऽसुरौ पुण्ये सति किं न घटामटेत् ॥ १३७॥ किञ्चित्कारणमुद्दिश्य वज्रायुधसुतोऽपि तत् । राज्यं शतवलिन्युचैर्निधाय निहतस्पृहः ॥१३८॥ संयमं सम्यगादाय मुनीन्द्रात् पिहिताश्रवात् । योगावसाने स प्रापद्वायुधमुनीश्वरम् ॥ १३९ ॥ तावुभौ सुचिरं कृत्वा प्रब्रज्यां सह दुःस्सहाम् । बैभारपर्वतस्याग्रे विग्रहेऽप्यकृताग्रहौ ॥१४०॥ ऊर्ध्वमैवेयकस्याधोऽभूतां सौमनसाइये । एकान्नत्रिंशदध्यायुषौ विमाने महर्द्धिकौ ॥ १४१ ॥ ततो वज्रायुधश्च्युत्वा द्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहगे । विषये पुष्कलावत्यां नगरी पुण्डरीकिणी ॥ १४२ ॥ पतिर्धनरथस्तस्य देवी कान्ता मनोहरा । तयोर्मेघरथाख्योऽभूदाधानाथाप्तसत्क्रियः ॥ १४३॥ तस्यैवान्योऽहमिन्द्रोऽपि सुतो दृढरथाह्नयः । जातो मनोरमायां ताविव चन्द्रदिवाकरौ ॥ १४४ ॥ तयोः पराक्रमप्रज्ञाप्रश्रयप्राभवक्षमाः । सत्यत्यागादयोऽन्ये च प्रादुरासन् गुणाः स्थिराः ॥ १४५ ॥ सुतौ तौ यौवनापूर्णौ प्राप्तैश्वर्याविव द्विपौ । विलोक्य तद्विवाहार्थं महीशो विहितस्मृतिः ॥ १४६ ॥ ज्येष्ठसूनोविंवाहेन प्रियमित्रामनोरमे । कनीयसोऽपि सुमतिं विदधे चित्रावल्लभाम् ॥ १४७ ॥ अभवत्प्रियमित्रायां तनूजो नन्दिवर्द्धनः । सुमत्यां वरसेनाख्यः सुतो दृढरथस्य च ॥ १४८ ॥ इति स्वपुत्रपौत्रादिसुखसाधनसंयुतः । सिंहविष्टरमध्यास्य शक्रलीलां समावहन् ॥१४९॥ सदात्र प्रियमित्रायाः सुषेणा नाम चेटिका । कृकवाकुं समानीय 'घनतुण्डाभिधानकम् ॥ १५० ॥ दर्शयित्वाsse यथेनं जयेयुः कृकवाकुकाः । परेषां प्रददे तेभ्यो दीनाराणां सहस्रकम् ॥ १५१ ॥ इति देव्या कनीयस्याः श्रुत्वा तद्गणिकाऽऽनयत् । काञ्चना वज्रतुण्डाख्यं कुक्कुटं योधने तयोः ॥१५२॥ कहाँ दो असुर फिर भी उन स्त्रियोंने असुरोंको भगा दिया सो ठीक है क्योंकि पुण्यके रहते हुए कौनसा कार्य सिद्ध नहीं हो सकता ? ॥। १३५ - १३७ ॥
इधर वज्रायुधके पुत्र सहस्रायुधको भी किसी कारणसे वैराग्य हो गया, उन्होंने अपना राज्य शतबलीके लिए दे दिया, सब प्रकारकी इच्छाएं छोड़ दीं और पिहितास्रव नामके मुनिराजसे उत्तम संयम प्राप्त कर लिया। जब एक वर्षका योग समाप्त हुआ तब वे अपने पिता-वायुध मुनिराजके समीप जा पहुँचे ।। १३८-१३६ ॥ पिता पुत्र दोनोंने चिरकाल तक दुःसह तपस्या की, अन्तमें वे वैभार पर्वतके अग्रभागपर पहुँचे। वहाँ उन्होंने शरीरमें भी अपना आग्रह छोड़ दिया अर्थात् शरीरसे स्नेहरहित हो कर संन्यासमरण किया और ऊर्ध्वयैवेयकके नीचेके सौमनस नामक विमान में बड़ी ऋद्धि धारक अहमिन्द्र हुए, वहाँ उनतीस सागरकी उनकी आयु थी ।। १४०-१४१ ॥
इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें पुष्कलावती नामका देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नामकी नगरीमें राजा घनरथ राज्य करते थे । उनकी मनोहरा नामकी सुन्दर रानी थी । वायुधका जीव ग्रैवेयकसे च्युत होकर उन्हीं दोनोंके मेघरथ नामका पुत्र हुआ । उसके जन्मके पहले गर्भाधान आदि क्रियाएं हुई थीं ।। १४२ - १४३ ।। उन्हीं राजा घनरथकी दूसरी रानी मनोरमा थी। दूसरा अहमिन्द्र (सहस्रायुध का जीव) उसीके गर्भसे दृढरथ नामका पुत्र हुआ। ये दोनों ही पुत्र चन्द्र और सूर्यके समान जान पड़ते थे । १४४ ॥ उन दोनोंमें पराक्रम, बुद्धि, विनय, प्रभाव, क्षमा, सत्य, त्याग आदि अनेक स्थायी गुण प्रकट हुए थे । १४५ ॥ दोनों ही पुत्र पूर्ण युवा हो गये और ऐश्वर्य प्राप्त गजराजके समान सुशोभित होने लगे । उन्हें देख राजाका ध्यान उनके विवाहकी ओर गया ।। १४६ ॥ उन्होंने बड़े पुत्रका विवाह प्रियमित्रा और मनोरमाके साथ किया था तथा सुमतिको छोटे पुत्रकी हृदयवल्लभा बनाया था ॥ १४७ ॥ कुमार मेघरथकी प्रियमित्रा स्त्रीसे नन्दिवर्धन नामका पुत्र हुआ और
रथकी सुमति नामकी स्त्रीसे वरसेन नामका पुत्र हुआ ॥ १४८ ॥ इस प्रकार पुत्र पौत्र आदि सुखके समस्त साधनोंसे युक्त राजा घनरथ सिंहासन पर बैठकर इन्द्रकी लीला धारण करता था ॥ १४६ ॥ उसी समय प्रियमित्राकी सुषेणा नामकी दासी घनतुण्ड नामका मुर्गा लाकर दिखलाती हुई बोली कि यदि दूसरोंके मुर्गे इसे जीत लें तो मैं एक हजार दीनार दूँगी। यह सुनकर छोटी स्त्रीकी काना नामकी दासी एक वज्रतुण्ड नामका मुर्गा ले आई। दोनोंका युद्ध होने लगा, वह युद्ध
१ वज्रतुण्डाभिधानकं क०, ख०, ग०, घ० ।
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