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महापुराणे उत्तरपुराणम् प्रध्वंसाशास्त्यतिक्रान्तः क्षणो भाव्यप्यनुभवात् । भवरक्षणस्वरूपातिव्याप्तो नामोति सन्ततिम् ॥१७॥ यदि कशिचतुर्थोऽस्ति सन्तानस्य तवास्तु सः। ततः सन्तानवादोऽयं भवग्यसनसन्ततिः ॥१८॥ इति देवोऽप्यसौ तस्य वाग्वज्रेण विचूणितम् । वचो विचिन्त्य स्वं भग्नमानः कालादिलन्धितः ॥६९॥ सद्यः सम्यक्त्वमादाय सम्पूज्य धरणीश्वरम् । निजागमनवृत्तान्तमभिधाय दिवं गतः॥ ७० ॥ अथ क्षेमकरः पृथ्व्याः क्षेमं योगं च सन्दधत् । लब्धबोधिर्मतिज्ञानक्षयोपशमनावृतः ॥१॥ वज्रायुधकुमारस्य कृत्वा राज्याभिषेचनम् । प्राप्तलौकान्तिकस्तोत्रः परिनिष्क्रम्य गेहतः ॥७२॥ अनावरणमस्थानमप्रमादमनुक्रमम् । असङ्गमकृताहारम'नाहार्यमनेकधा ॥ ७३॥ भकषायमनारम्भमनवद्यमखण्डितम् । अनारतश्रुताभ्यासं प्रकुर्वन् स तपश्चिरम् ॥ ७॥ निर्मम निरहवार निःशाव्यं निजितेन्द्रियाम् । निःक्रोध निश्चलं चित्तं नित्य निर्मल व्यधात् ॥७५॥ क्रमाकैवलमप्याप्य न्याहूतपुरुहूतकम् । गणान् द्वादश वाऽऽत्मीयान् वाग्विसर्गादतीतृपत् ॥ ७६ ॥ वज्रायुधेऽथ भूनाथे सुपुण्यफलितां महीम् । पात्यागमन्मधुर्मासो मदनोन्माददीपनः ॥ ७ ॥ कोकिलानां कलालापो ध्वनिश्च मधुरोऽलिनाम् । अहरकाममन्त्रो वा प्राणान् प्रोषितयोषिताम् ॥७॥
रहेगी। इस तरह अभेदवाइमें सन्तानकी शून्यता बलात् सिद्ध होती है ।जो क्षण बीत चुका है उसका अभाव हो गया है जो आगे आने वाला है उसका अभी उद्भव नहीं हुआ है और जो वर्तमान क्षण है वह अपने स्वरूपमें ही अतिव्याप्त है अतः इन तीनों क्षणोंसे सन्तानकी उत्पत्ति संभव नहीं है । यदि इनके सिवाय कोई चौथा क्षण माना जावे तो उससे संतानकी सिद्धि हो सकती है परन्तु चौथा क्षण आप मानते नहीं है क्योंकि चौथा क्षण माननेसे तीन क्षण तक स्कन्धकी सत्ता माननी पड़ेगी और जिससे क्षणिकवाद समाप्त हो जावेगा। इस प्रकार आपका यह सन्तानवाद संसारके दुःखोंकी सन्तति मालूम होती है । ६६-६८।।
इस प्रकार उस देवने जब विचार किया कि हमारे वचन वनायुधके वचनरूपी वनसे खण्ड-खण्ड हो गये हैं तब उसका समस्त मान दूर हो गया। उसी समय कालादि लब्धियोंकी अनुकूलतासे उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया। उसने राजाकी पूजा की, अपने आनेका वृत्तान्त कहा और फिर वह स्वर्ग चला गया ।। ६६-७० ॥ अथानन्तर क्षेमकर महाराज योग और तेमका समन्वय करते हुए चिरकाल तक पृथिवीका पालन करते रहे । तदनन्तर किसी दिन उन्होंने मतिमनावरणके क्षयोपशमसे युक्त होकर आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लिया ॥७२॥ वज्रायुधकुमारका राज्याभिषेक किया, लौकान्तिक देवोंके द्वारा स्तुति प्राप्त की और घरसे निकल कर दीक्षा धारण कर ली।॥७२॥ उन्होंने निरन्तर शास्त्रका अभ्यास करते हुए चिरकाल तक अनेक प्रकारका तपश्चरण किया। वे तप.
करते समय किसी प्रकारका आवरण नहीं रखते थे, किसी स्थान पर नियमित निवास नहीं करते थे, कभी प्रमाद नहीं करते थे, कभी शास्त्रविहित क्रमका उल्लंघन नहीं करते थे, कोई परिग्रह पास नहीं रखते थे, लम्बे-लम्बे उपवास रखकर आहारका त्याग कर देते थे, किसी प्रकारका आभूषण नहीं पहिनते थे, कभी कषाय नहीं करते थे, कोई प्रकारका प्रारम्भ नहीं रखते थे, कोई पाप नहीं करते थे, और गृहीत प्रतिज्ञाओंको कभी खण्डित नहीं करते थे, उन्होंने निर्वाण प्राप्त करनेके लिए अपना चित्त ममतारहित, अहंकाररहित, शठतारहित, जितेन्द्रिय, क्रोधरहित, चञ्चलतारहित, और निर्मल बना लिया था ॥७३-७५ ॥ क्रम-क्रम से उन्होंने केवलज्ञान भी प्राप्त कर लिया, इन्द्र आदि देवता उनके शान-कल्याणकके उत्सवमें आये और दिव्यध्वनिके द्वारा उन्होंने अपनी बारहों सभाओंको संतुष्ट कर दिया ।। ७६ ॥ .
इधर राजा वायुध उत्तम पुण्यसे फली हुई पृथिषीका पालन करने लगे। धीरे-धीरे कामके उन्मादको बढ़ाने वाला चैतका महीना पाया। कोयलोंका मनोहर पालाप और भ्रमरोंका मधुर शब्द कामदेवके मंत्रके समान विरहिणी स्त्रियोंके प्राण हरण करने लगा। समस्त प्रकारके फूल
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१-मकृत्वाहार-क०, ५०। २ प्राणमन्त्री वा ख.।
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