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महापुराणे उत्तरपुराणम् जनानुरागः प्रागेव तस्मिस्तस्योदयादभूत् । सन्ध्याराग इवार्कस्य महाभ्युदयसूचनः॥४२॥ विश्वाशा व्यानशे तस्य यशो विशदयद् भृशम् । काशप्रसवसङ्काशमाश्वासितजनश्रुति ॥ ४३ ॥ राज्यलक्ष्क्ष्या व्यभालक्ष्मीमत्या|चाप्यनवं वयः। असौ पक्षान्तरं कान्त्या ज्योत्स्नयावाप्य वा विधुः ॥४४॥ सुनुस्तयोः प्रतीन्द्रोऽभूत्सहस्रायुधनामभाक् । 'वासरादेः प्रतीच्यां वा धर्मदीप्तिः कनद्युतिः॥४५॥ श्रीषेणायां सुतस्तस्य शान्तान्तकनकोऽजनि । एवं क्षेमकरः पुत्रपौत्रादिपरिवारितः॥ ४६॥ अप्रतीपप्रतापोऽयं नतभूपकदम्बकः । कदाचिद्वीज्यमानोऽस्थाचामरैः सिंहविष्टरे ॥ ४७ ॥ तदामरसदस्यासीदीशानस्तुतिगोचरः । वज्रायुधो महासम्यग्दर्शनाधिक्यतः कृती ॥४८॥ देवो विचित्रचूलाख्यस्तत् स्तवं सोढुमक्षमः । अभिवज्रायुधं प्रापस्खलो ह्यन्यस्तवासहः ॥ ४९ ॥ दृष्टा रूपपरावृत्या महीनाथं यथोचितम् । वादकण्डूययाऽवोचत्सौत्रान्तिकमते स्थितः॥ ५० ॥ स्वं जीवादिपदार्थानां विद्वान् किल विचारणे । वद पर्यायिणो भिन्नः पर्यायः किं विपर्ययः ॥ ५ ॥ भिन्नश्चेच्छून्यताप्राप्तिस्तयोराधारहानितः । तथा चाव्यपदेशत्वाचायं पक्षो घटामटेत् ॥ ५२ ॥ एकत्वसङ्गरेऽप्येतन युक्तिपदवीं ब्रजेत् । अन्योन्यगोचरैकत्वनानात्वाद्यन्तसङ्करात् ॥ ५३॥ अस्ति चेद द्रव्यमेकाते पर्यायाः बहवो मताः । एकात्मकमपीत्येष सङ्गरो भामाप्नुयात् ॥ ५ ॥
नित्यत्वेऽपि तयोः पुण्यपापपाकात्मताच्युतेः । तद्धेतुबन्धनाभावान्मोक्षाभावो न वार्यते ॥ ५५ ॥ गुणोंसे वह सुशोभित होने लगा ॥४१ ।। जिस प्रकार सूर्यके महाभ्युदयको सूचित करने वाली उषाकी लालिमा सूर्योदयके पहले ही प्रकट हो जाती है उसी प्रकार उस पुत्रके महाभ्युदयको सूचित करने वाला मनुष्योंका अनुराग उसके जन्मके पहले ही प्रकट हो गया था ॥ ४२ ॥ सब लोगोंके कानोंको आश्वासन देने वाला और काशके फलके समान फैला हुआ उसका उज्ज्वल यश समस्त
फैल गया था ।। ४३ ।। जिस प्रकार चन्द्रमा शुक्लपक्ष को पाकर कान्ति तथा चन्द्रिकासे सुशोभित होता है उसी प्रकार वह वज्रायुध भी नूतन-तरुण अवस्था पाकर राज्यलक्ष्मी तथा लक्ष्मीमती नामक स्त्रीसे सुशोभित हो रहा था । ४४ ॥ जिस प्रकार प्रातःकालके समय पूर्व दिशासे देदीप्यमान सूर्यका उदय होता है उसी प्रकार उन दोनों-वज्रायुध और लक्ष्मीमतीके अनन्तवीर्य अथवा प्रतीन्द्रका जीव सहस्रायुध नामका पुत्र उत्पन्न हुआ ॥४५॥ सहस्त्रायुधके श्रीषेणा स्त्रीसे कनकशान्त नामका पुत्र हुआ। इस प्रकार राजा क्षेमंकर पुत्र पौत्र आदि परिवारसे परिवृत हो कर राज्य करते थे। उनका प्रताप प्रतिद्वन्द्वीसे रहित था, और अनेक राजाओंके समूह उन्हें नमस्कार करते थे। किसी एक दिन वे सिंहासन पर विराजमान थे, उनपर चमर ढोले जा रहे थे॥४६-४७॥ ठीक उसी समय देवोंकी सभामें ऐशान स्वर्गके इन्द्रने वज्रायुधकी इस प्रकार स्तुति की इस समय वनायुध महासम्यग्दर्शनकी अधिकतासे अत्यन्त पुण्यवान् है ॥४८॥ विचित्रचूल नामका देव इस स्तुति को नहीं सह सका अतः परीक्षा करनेके लिए वनायुधकी ओर चला सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट मनुष्य दूसरेकी स्तुतिको सहन नहीं कर सकता ॥४६॥ उसने रूप बदल कर राजाके यथायोग्य दर्शन किये और शास्त्रार्थ करनेकी खुजलीसे सौत्रान्तिक मतका आश्रय ले इस प्रकार कहा ।। ५०॥ हे राजन् ! आप जीव आदि पदार्थों के विचार करनेमें विद्वान् हैं इसलिए कहिये कि पर्याय पर्यायीसे भिन्न है कि अभिन्न ?॥५१॥ यदि पर्यायीसे पर्याय भिन्न है तो शून्यताकी प्राप्ति होती है क्योंकि दोनोंका अलग-अलग कोई आधार नहीं है और यह पर्यायी है यह इसका पर्याय है इस प्रकारका व्यवहार भी नहीं बन सकता अतः यह पक्ष संगत नहीं बैठता ।। ५२ ।। यदि पर्यायी और पर्यायको एक माना जावे तो यह मानना भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि परस्पर एकपना और अनेकपना दोनोंके मिलनेसे संकर दोष आता है ॥ ५३॥ 'यदि द्रव्य एक है और पयाये बहुत है ऐसा आपका मत है तो दोनों एक स्वरूप भी हैं। इस प्रतिज्ञाका भङ्ग हो जावेगा ॥५४॥ यदि द्रव्य और पर्याय दोनोंको नित्य मानेंगे तो फिर नित्य होनेके कारण पुण्य पापरूप कर्मोंका उदय नहीं हो सकेगा, कर्मोंके उदयके विना बन्धके कारण राग द्वेष आदि परिणाम नहीं हो सकेंगे, उनके अभावमें कर्मोका
१'वासरादेरिव प्राच्या इति पाठः सुष्ठु प्रतिभाति ।
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