________________
महापुराणे उत्तरपुराणम्
श्रुत्वा धर्म व्रतैः सार्द्धमुपवासांश्च संविदा । समग्रहीष्टां नौ दृष्ट्वा कदाचित् त्रिपुराधिपः ॥ १४ ॥ मनोहरवनेऽगच्छत् सहवज्राङ्गदः खगः । कान्तया वज्रमालिन्या समासक्तमतिस्तदा ॥ १५ ॥ पुरीं प्रापय्य कान्तां स्वां सहसा पुनरागतः । गृहीत्वाssवां व्रजन्नाशु निजाभिप्राय वेदिनीम् ॥ १६ ॥ आगतामन्तरे दृष्ट्वा दूरात्तां वज्रमालिनीम् । त्यक्त्वा वेणुवने भीत्या तस्याः स्वपुरमीयिवान् ॥ १७ ॥ आवां संन्यस्य तत्रैव सौधर्मेन्द्रस्य शुद्धधीः । व्रतोपवासपुण्येन देवी नवमिकाभवम् ॥ १८ ॥ त्वं च देवी कुबेरस्य रत्याख्या समजायथाः । अन्योन्यमवगत्यैत्य नन्दीश्वरमहामहम् ॥ १९ ॥ अथ मन्दरपर्यन्तवने निर्जन्तुके स्थितम् । चारणं धृतिषेणाख्यं समाश्रित्य प्रणम्य 'तम् ॥ २० ॥ आवामप्रश्नयावेदं कदा स्यान्मुक्तिरावयोः । इत्यथो मुनिरप्याह जन्मनीतश्चतुर्थंके ॥ २१ ॥ अवश्यं युवयोर्मुक्तिरिति तस्मान्महामते । सुमते नाकिनां लोकात्त्वां बोधयितुमागता ॥ २२ ॥ इत्यवोचत्तदाकर्ण्य सुमतिर्नाम सार्थकम् । कुर्वती पितृनिर्मुक्ता प्रात्राजीत्सुव्रतान्तिके ॥ २३ ॥ अ कन्यकाभिः शतैः सार्द्धं सप्तभिः सा महातपाः । त्यक्तप्राणानते कल्पे देवोऽभवदनूदिशे ॥ २४ ॥ आधिपत्यं त्रिखण्डस्य विधाय विविधैः सुखैः । प्राविशत्केशवः पापात् प्रान्ते रत्नप्रभां क्षितिम् ॥ २५ ॥ तच्छोकात्सीरपाणिश्व राज्यलक्ष्मीं प्रबुद्धधीः । प्रदायानन्तसेनाय यशोधरमुनीश्वरात् ॥ २६ ॥ आदाय संयमं प्राप्य तृतीयावगमं शमी । त्रिंशविससंन्यासादच्युताधीश्वरोऽभवत् ॥ २७ ॥ धरणेन्द्रात् पितुर्बुध्वा प्राप्तसम्यक्त्वरत्नकः । संख्यातवर्षैः प्रच्युत्य नरकाद् दुरितच्युतेः ॥ २८ ॥
१७६
तथा अनन्तश्री नामकी दो पुत्रियां उत्पन्न हुई थीं। किसी एक दिन हम दोनोंने सिद्धकूटमें विराजमान नन्दन नामके मुनिराज से धर्मका स्वरूप सुना, व्रत ग्रहण किये तथा सम्यग्ज्ञानके साथ-साथ अनेक उपवास किये। किसी दिन त्रिपुरनगरका स्वामी वज्राङ्गद विद्याधर अपनी वज्रमालिनी स्त्रीके साथ मनोहर नामक वनमें जा रहा था कि वह हम दोनोंको देखकर आसक्त हो गया । वह उसी समय लौटा और अपनी स्त्रीको अपनी नगरीमें भेजकर शीघ्र ही वापिस आ गया। इधर
हम दोनोंको पकड़कर शीघ्र ही जाना चाहता था कि उधरसे उसका अभिप्राय जाननेवाली वज्रमालिनी आ धमकी । उसे दूरसे ही आती देख वस्त्राङ्गद डर गया अतः वह हम दोनोंको वंश - वनमें छोड़कर अपने नगरकी ओर चला गया ।। १२-१७ ॥ हम दोनोंने उसी वनमें संन्यासमरण किया । जिससे शुद्ध बुद्धिको धारण करने वाली मैं तो व्रत और उपवासक पुण्यसे सौधर्मेन्द्रकी नवमिका नामकी देवी हुई और तू कुबेरकी रति नामकी देवी हुई । एक बार हम दोनों परस्पर मिलकर नन्दीश्वर द्वीपमें महामह यज्ञ देखने के लिए गई थीं वहाँ से लौटकर मेरुपर्वतके निकटवर्ती जन्तुरहित वनमें विराजमान धृतिषेण नामक चारणमुनिराज के पास पहुँची थीं और उनसे हम दोनोंने यह प्रश्न किया था कि हे भगवन्! हम दोनोंकी मुक्ति कब होगी ? हम लोगोंका प्रश्न सुननेके बाद मुनिराजने उत्तर दिया था कि इस जन्मसे चौथे जन्ममें तुम दोनोंकी अवश्य ही मुक्ति होगी । हे बुद्धिमती सुमते ! मैं इस कारण ही तुम्हें समझानेके लिए स्वर्गलोकसे यहाँ आई हूं ॥ १८-२२ ।। इस प्रकार उस देवीने कहा । उसे सुन कर सुमति अपना नाम सार्थक करती हुई पितासे छुट्टी पाकर सुव्रता नामकी आर्थिक के पास सात सौ कन्याओंके साथ दीक्षित हो गई। दीक्षित हो कर उसने बड़ा कठिन तप किया और आयुके अन्तमें मर कर आनत नामक तेरहवें स्वर्ग के अनुदिश विमान में देव हुई || २३-२४ ॥
इधर अनन्तवीर्यं नारायण, अनेक प्रकारके सुखोंके साथ तीन खण्डका राज्य करता रहा और अन्त में पापोदयसे रत्नप्रभा नामकी पहिली पृथिवीमें गया ।। २५ ।। उसके शोकसे बलभद्र अपराजित, पहले तो बहुत दुःखी हुए फिर जब प्रबुद्ध हुए तब अनन्तसेन नामक पुत्रके लिए राज्य देकर यशोधर मुनिराज से संयम धारण कर लिया। वे तीसरा अवधिज्ञान प्राप्तकर अत्यन्त शान्त हो गये और तीस दिनका संन्यास लेकर अच्युत स्वर्गके इन्द्र हुए ।। २६-२७ ।। अपराजित और १ ताम् ल० । २ प्रब्राजीत् ल० । ३ कम्पकालिशतैः ल० । ४ लब्ध्या म०, ल० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org