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महापुराणे उत्तरपुराणम् सावष्टम्भं वरः श्रुत्वा तस्य राजा सविस्मयः । भद्र त्वयाऽऽस्यतामस्मिनासने किञ्चिदुच्यते ॥ १७६ ॥ किंगोत्रः किंगुरुयहि किंशास्त्र: किंनिमित्तकः । किंनाम किंनिमित्तोऽयमादेश इति पृष्टवान् ॥ १७७ ॥ कुण्डलाख्यपुरे राजा नाम्ना सिहरथो महान् । पुरोहितः सुरगुरुस्तस्य शिष्यो विशारदः ॥ १७८ ॥ तच्छिष्येण निमित्तानि प्रव्रज्य हलिना सह । मयाऽष्टाङ्गान्यधीतानि सोपदेशश्रुतानि च ॥ १७९ ॥ अष्टाङ्गानि निमित्तानि कानि किंलक्षणानि चेत् । शृणु श्रीविजयायुष्मन् यथाप्रश्नं ब्रवीमि ते ॥१८॥ अन्तरिक्षसभौमाङ्गस्वरव्यञ्जनलक्षणः। छिमस्वप्नविभेदेन प्रोक्तान्यागमवेदिभिः ॥ १८१ ॥ तात्स्थ्यात्साहचर्याद्वा ज्योतिषामन्तरिक्षवाक् । चन्द्रादिपञ्चभेदानामुदयास्तमयादिभिः ॥ १८२॥ जयः पराजयो हानिर्वृद्धिर्मन्युः सजीवितः। लाभालाभौ निरूप्यन्ते यत्रान्यानि च तत्वतः ॥१८॥ भूमिस्थानादिभेदेन हानिवृद्धयादिबोधनम् । भम्यन्तः स्थितरत्नादिकथनं भौममिष्यते ॥ १८४ ॥ अङ्गप्रत्यङ्गसंस्पर्शदर्शनादिमिरङ्गिनाम् । अङ्गकालत्रयोत्पन्नशुभाशुभनिरूपणम् ॥ १८५॥ मृदङ्गादिगजेन्द्रादिचेतनेतरसुस्वरैः । दुःस्वरैश्च स्वरोऽभीष्टानिष्टप्रापणसूचनः ॥ १८६ ॥ शिरोमुखादिसंजाततिललक्ष्मव्रणादिभिः। व्यम्जन स्थानमानैश्य लाभालाभादिवेदनम् ॥ १८७n श्रीवृक्षस्वस्तिकाद्यष्टशताङ्गगतलक्षणैः । भोगैश्वर्यादिसम्प्राप्तिकथन लक्षणं मतम् ॥ १८८॥ देवमानुषरक्षोविभागैर्वस्वायुधादिषु । मूषकादिकृतच्छेदैः छिन्नं तत्फलभाषणम् ॥ १८९॥
शुभाशुभविभागोक्तस्वमसन्दर्शनान्नृणम् ।स्वनो वृद्धिविनाशादियाथात्म्यकथनं मतः॥ १९॥ षेकके साथ रत्नवृष्टि पड़ेगी ॥ १७५ ।। उसके अभिमानपूर्ण वचन सुनकर राजाको आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि हे भद्र ! तुम इस आसन पर बैठो, मैं कुछ कहता हूँ॥ १७६ ॥ कहो तो सही, आपका गोत्र क्या है ? गुरु कौन है, क्या-क्या शास्त्र आपने पढ़े हैं, क्या-क्या निमित्त आप जानते हैं, आपका क्या नाम है ? और आपका यह आदेश किस कारण हो रहा है ? यह सब राजाने पूछा ॥ १७७ ॥ निमित्तज्ञानी कहने लगा कि कुण्डलपुर नगरमें सिंहरथ नामका एक बड़ा राजा है। उसके पुरोहितका नाम सुरगुरु है और उसका एक शिष्य बहुत ही विद्वान् है ।। १७८ ।। किसी एक दिन बलभद्र के साथ दीक्षा लेकर मैंने उसके शिष्यके साथ अष्टाङ्ग निमित्तज्ञानका अध्ययन किया है और उपदेशके साथ उनका श्रवण भी किया है ॥ १७६ ॥ अष्टाङ्ग निमित्त कौन हैं और उनके लक्षण क्या हैं ? यदि यह आप जानना चाहते हैं तो हे आयुष्मन् विजय ! तुम सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्नके अनुसार सब कहता हूँ ॥ १८०॥ आगमके जानकार आचार्योंने अन्तरिक्ष, भौम, अङ्ग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न और स्वप्न इनके भेदसे आठ तरहके निमित्त कहे हैं ॥ १८१ ।। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और
तारे ये पाँच प्रकारके ज्योतिषी आकाशमें रहते हैं अथवा आकाशके साथ सदा उनका साहचर्य रहता है इसलिए इन्हें अन्तरिक्ष-आकाश कहते हैं। इनके उदय अस्त आदिके द्वारा जो जय-पराजय, हानि, वृद्धि, शोक, जीवन, लाभ, अलाभ तथा अन्य बातोंका यथार्थ निरूपण होता है उसे अन्तरिक्षनिमित्त कहते हैं । १८२-१८३ ।। पृथिवीके जुदे-जुदे स्थान आदिके भेदसे किसीकी हानि वृद्धि आदिका बतलाना तथा पृथिवीके भीतर रखे हुए रत्न आदिका कहना सो भौमनिमित्त है ॥ १८४ ॥ अङ्ग-उपाङ्गके स्पर्श करने अथवा देखनेसे जो प्राणियोंके तीन कालमें उत्पन्न होनेवाले शुभ-अशुभका निरूपण होता है वह अङ्ग-निमित्त कहलाता है।। १८५॥
मृदङ्ग आदि अचेतन और हाथी आदि चेतन पदार्थोंके सुस्वर तथा दुःस्वरके द्वारा इष्ट
पदार्थकी प्राप्तिकी सूचना देनेवाला ज्ञान स्वर-निमित्त ज्ञान है ॥ १८६॥ शिर मुख आदिमें उत्पन्न हए तिल आदि चिह्न अथवा घाव आदिसे किसीका लाभ अलाभ आदि बतलाना सो व्यञ्जननिमित्त है ॥ १८७॥ शरीरमें पाये जानेवाले श्रीवृक्ष तथा स्वस्तिक आदि एक सौ आठ लक्षणोंके द्वारा भोग ऐश्वर्य आदिकी प्राप्तिका कथन करना लक्षण-निमित्त ज्ञान है ॥ १८८ ।। वस्त्र तथा शस्त्र आदिमें मूषक आदि जो छेद कर देते हैं वे देव, मानुष और राक्षसके भेदसे तीन प्रकारके होते हैं उनसे जो फल कहा जाता है उसे छिन्न-निमित्त कहते हैं ।। १८६ ॥ शुभ-अशुभके भेदसे स्वप्न दो प्रकारके कहे गये हैं उनके देखनेसे मनुष्यों की वृद्धि तथा हानि आदि का यथार्थ कथन करना
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