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महापुराणे उत्तरपुराणम् इति तं च ततो देवो वाचा प्रोवाच दिव्यया। सन्तय॑न्ते यया भव्याः प्राच्या पृष्ठ्येव चातकाः ॥२९॥ शृणु भव्य भवस्यास्य कारणं कर्म कर्मणः । हेतवो हे खगाधीश मिथ्यात्वासयमादयः ॥ २९५ ॥ मिथ्यात्वोदयसम्भूतपरिणामो विपर्ययम् । ज्ञानस्य जनयन् विद्धि मिथ्यात्वं बन्धकारणम् ॥ २९६ ॥ अज्ञानसंशयकान्तविपरीतविकल्पनम् । विनयैकान्तजं चेति सज्ज्ञस्तत्पञ्चधा मतम् ॥ २९७ ॥ पापधर्माभिधानावबोधदरेषु जन्तुषु । मिथ्यात्वोदयपर्यायो मिथ्यात्वं स्यातदादिमम् ॥ २९८ ॥
आप्तागमादिनानात्वात्तत्वे दोलायमानता। येन संशयमिथ्यात्वं तद्विद्धि बुधसराम'॥ २९९ ॥ द्रव्यपर्यायरूपेऽर्थे अङ्गे चाक्षयसाधने । तत्स्यादेकान्तमिथ्यात्वं येनैकान्तावधारणम् ॥ ३०॥ यो ज्ञानज्ञायकज्ञेययाथात्म्ये निर्णयोऽन्यथा । स येनात्मनि तद्विद्धि मिथ्यात्वं विपरीतजम् ॥ ३०१॥ मनोवाकायवृचेनप्रणतौ सर्ववस्तुषु। मुक्त्युपायमतिर्येन मिध्यात्वं स्यात् तदन्तिमम् ॥ ३०२ ।। अव्रतस्य मनःकायवचोवृत्तिरसंयमः । तज्ज्ञैः सोऽपि द्विधा प्रोक्तः प्राणीन्द्रियसमाश्रयात् ॥ ३०३॥ अप्रत्याख्यानमोहानामुदयो यावदङ्गिनाम् । आ चतुर्थगुणस्थानात्तावत्स बन्धकारणम् ॥ ३०४॥ कायवाकुचेतसां वृचितानां मलकारिणी। या सा षष्ठगुणस्थाने प्रमादो बन्धवृत्तये ॥ ३०५॥ प्रोक्ताः पादशैतस्य भेदाः संज्वलनोदयात् । चारित्रत्रययुक्तस्य प्रायश्रित्तस्य हेतवः ॥ ३०६ ॥ यः संज्वलनसंज्ञस्य चतुष्कस्योदयाद्भवेत् । गुणस्थानचतुष्के स कषायो बन्धहेतुकः ॥ ३०७ ॥
स यः षोडशभेदेन कषायः कथितो जिनैः । उपशान्तादितो हेतुबन्धे स्थित्यनुभागयोः ॥ ३०८॥ रूपी समुद्रसे निकल कर सुख देने वाले अपने स्थानको प्राप्त करते हैं ॥ २६३ ॥ ऐसा विद्याधरोंके राजाने भगवानसे पूछा । तदनन्तर भगवान् दिव्यध्वनिके द्वारा कहने लगे सो ठीक ही है क्योंकि जिस प्रकार पूर्व वृष्टिके द्वारा चातक पक्षी संतोषको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार भव्य जीव दिव्यध्वनिके द्वारा संतोषको प्राप्त होते हैं ।। २६४ ।। हे विद्याधर भव्य ! सुन, इस संसारके कारण कर्म हैं और कर्मके कारण मिथ्यात्व असंयम आदि हैं ॥ २६५ ॥ मिथ्यात्व कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ जो परिणाम ज्ञानको भी विपरीत कर देता है उसे मिथ्यात्व जानो। यह मिथ्यात्व बन्धका कारण है ॥ २६६ ॥ अज्ञान, संशय, एकान्त, विपरीत और विनयके भेदसे ज्ञानी पुरुष उस मिथ्यात्वको पांच प्रकारका मानते हैं ।।२६७॥ पाप और धर्मके नामसे दूर रहनेवाले जीवोंके मिथात्व कर्मके उदयसे जो परिणाम होता है वह अज्ञान मिथ्यात्व है ।। २६८ ।। प्राप्त तथा आगम आदिके नाना होने के कारण जिसके उदयसे तत्त्वके स्वरूपमें दोलायमानता-चञ्चलता बनी रहती है उसे हे श्रेष्ठ विद्वान् ! तुम संशय मिथ्यात्व जानो ।। २६६ ।। द्रव्य पर्यायरूप पदार्थमें अथवा मोक्षका साधन जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र है उसमें किसी एकका ही एकान्त रूपसे निश्चय करना एकान्त मिथ्यादर्शन है ।। ३०० ॥ आत्मामें जिसका उदय रहते हुए ज्ञान ज्ञायक और ज्ञेयके यथार्थ स्वरूपका विपरीत निर्णय होता है उसे .विपरीत मिथ्यादर्शन जानो ॥ ३०१॥ मन, वचन और कायके द्वारा जहाँ सब देवोंको प्रणाम किया जाता है और समस्त पदार्थोंको मोक्षका उपाय माना जाता है उसे विनय मिथ्यात्व कहते हैं ॥३०२ ॥ व्रतरहित पुरुषकी जो मन वचन कायकी क्रिया है उसे असंयम कहते हैं। इस विषयके जानकार मनुष्योंने प्राणी-असंयम और इन्द्रियअसंयमके भेदसे असंयमके दो भेद कहे हैं । ३०३ ।। जब तक जीवोंके अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहका उदय रहता है तब तक अर्थात् चतुर्थगुणस्थान तक असंयम बन्धका कारण माना गया है।३०४॥छठवें गुणस्थानों में व्रतोंमें संशय उत्पन्न करनेवाली जो मन वचन कायकी प्रवृत्ति है उसे प्रमाद कहते हैं। यह प्रमाद छठवें गुणस्थान तक बन्धका कारण होता है ।। ३०५ ।। प्रमादके पन्द्रह भेद कहे गये हैं । ये संज्वलन कषायका उदय होनेसे होते हैं तथा सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि इन तीन चारित्रोंसे युक्त जीवके प्रायश्चित्तके कारण बनते हैं। ३०६ ॥ सातवेंसे लेकर दशवें तक चार गुणस्थानों में संज्वलन क्रोध मान माया लोभके उदयसे जो परिणाम होते हैं उन्हें कषाय कहते हैं । इन चार गुणस्थानों यह कषाय ही बन्धका कारण है। ३०७ ॥ जिनेन्द्र
१प्रात्मागमादि ल०। २बुषसत्तमम् ।
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