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द्विषष्टितमं पर्व
१६१ इति पृष्ट्वा प्रतोष्यैनं स्नानवस्त्रासनादिभिः । स्वजात्युभेदभीतत्वात् सम्यक् तस्य मनोऽग्रहीत् ॥ ३३५॥ सोऽपि विप्रोऽतिदारिद्र्याभिद्रुतः पुत्रमेव तम् । प्रतिपद्याचरत्यायो नार्थिनां स्थितिपालनम् ॥३३६॥ दिनानि कानिचिद्यातान्येवं संवृतवृत्तयोः । तयोः कदाचित्तं विप्रं सत्यभामाधनार्चितम् ॥ ३३७ ॥ अप्राक्षीत्तत्परोक्षेऽयं किं सत्यं ब्रूत वः सुतः । एतत्कुत्सितचारित्रान्न प्रत्येमीति पुत्रताम् ॥ ३३८॥ स सुवर्णवसुर्गेहं यियासुश्चेतसा द्विषन् । गदित्वाऽगाद्यथावृत्तं दुष्टानां नास्ति दुष्करम् ॥ ३३९॥ अथ तन्नगराधीशः श्रीपेणः सिंहनन्दिता । निन्दिता च प्रिये तस्य तयोरिन्द्रेन्दुसन्निभौ ॥ ३४० ॥ इन्द्रोपेन्द्रादिसेनान्तौ तनूजौ मनुजोत्तमौ । ताभ्यामतिविनीताभ्यां पितरः प्रीतिमागमन् ॥ ३४१ ॥ पापस्वपतिना सत्यभामा सान्वयमानिनी । सहवासमनिच्छन्ती भूपतिं शरणं गता ॥ ३४२ ॥ ततः कापिलकं शोकान्मस्तकन्यस्तहस्तकम् । स्वोपान्तोपेतमन्यायघोषणं कृतकद्विजम् ॥ ३४३ ॥ वीक्ष्य 3 विज्ञातवृत्तान्तं स श्रीषेणमहीपतिः । पापिष्ठानां विजातीनां नाकार्यं नाम किञ्चन ॥ ३४४ ॥ एतदर्थं कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम् । आदिमध्यावसानेषु न ते यास्यन्ति विक्रियाम् ॥ ३४५ ॥ स्वयंरक्तो विरक्तायां योऽनुरागं प्रयच्छति । ४हरिनीलमणौ वासौ तेजः काङ्क्षन्ति लोहितम् ॥ ३४६ ॥ इत्यादि चिन्तयन् सद्यस्तं दुराचारमात्मनः । देशान्निराकरोद्धर्म्या न सहन्ते स्थितिक्षतिम् ॥ ३४७ ॥ कदाचिच्च महीपालः चारणद्वन्द्वमागतम् । प्रतीक्ष्यादित्यगत्याख्यमरिब्जयमपि स्वयम् ॥ ३४८ ॥
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अच्छा किया इस प्रकार पूजकर स्नान वस्त्र आसन आदिसे उसे संतुष्ट किया और कहीं हमारी जातिका भेद खुल न जावे इस भयसे उसने उसके मनको अच्छी तरह ग्रहण कर लिया ॥ ३३२३३५ ।। दरिद्रतासे पीड़ित हुआ पापी ब्राह्मण भी कपिलको अपना पुत्र कहकर उसके साथ पुत्र जैसा व्यवहार करने लगा सो ठीक है क्योंकि स्वार्थी मनुष्योंकी मर्यादाका पालन नहीं होता ॥ ३३६ ॥ इस प्रकार अपने समाचारोंको छिपाते हुए उन पिता-पुत्र के कितने ही दिन निकल गये । एक दिन कपिलके परोक्षमें सत्यभामाने ब्राह्मणको बहुत-सा धन देकर पूछा कि आप सत्य कहिये । क्या यह आपका ही पुत्र है ? इसके दुश्चरित्रसे मुझे विश्वास नहीं होता कि यह आपका ही पुत्र है । धरिणी - जट हृदयमें तो कपिलके साथ द्वेष रखता ही था और इधर सत्यभामा के दिये हुए सुवर्ण तथा धनको साथ लेकर घर जाना चाहता था इसलिए सब वृत्तान्त सच-सच कहकर घर चला गया सो ठीक ही है क्योंकि दुष्ट मनुष्यों के लिए कोई भी कार्य दुष्कर नहीं हैं ।। ३३७-३३६ ।।
अथानन्तर उस नगरका राजा श्रीषेण था । उसके सिंहनन्दिता और अनिन्दिता नामकी दो रानियां थीं । उन दोनोंको इन्द्र और चन्द्रमाके समान सुन्दर मनुष्यों में उत्तम इन्द्रसेन और उपेन्द्र - सेन नाम के दो पुत्र थे । वे दोनों ही पुत्र अत्यन्त नम्र थे अतः माता-पिता उनसे बहुत प्रसन्न रहते थे ।। ३४०-३४१ ।। सत्यभामा को अपने वंशका अभिमान था अतः वह अपने पापी पति के साथ सहवासकी इच्छा न रखती हुई राजाकी शरण गई ।। ३४२ ।। उस समय अन्यायकी घोषणा करने वाला वह बनावटी ब्राह्मण कपिल राजाके पास ही बैठा था, शोकके कारण उसने अपना हाथ अपने मस्तक पर लगा रक्खा था, उसे देखकर और उसका सब हाल जानकर श्रीषेण राजाने विचार किया कि पापी विजातीय मनुष्योंको संसारमें न करने योग्य कुछ भी कार्य नहीं है । इसीलिए राजा लोग ऐसे कुलीन मनुष्योंका संग्रह करते हैं जो आदि मध्य और अन्तमें कभी भी विकारको प्राप्त नहीं होते ।। ३४३-३४५ ।। जो स्वयं अनुरक्त हुआ पुरुष विरक्त स्त्री में अनुरागकी इच्छा करता है वह इन्द्रनील मणिमें लाल तेजकी इच्छा करता है ।। ३४६ ।। इत्यादि विचार करते हुए राजाने उस दुराचारीको शीघ्र ही अपने देशसे निकाल दिया सो ठीक ही है क्योंकि धर्मात्मा पुरुष मर्यादाकी हानिको सहन नहीं करते ।। ३४७ ।। किसी एक दिन राजाने घर पर आये हुए आदित्यगति और अरिञ्जय नामके दो चारण मुनियोंको पडिगाह कर स्वयं आहार दान दिया, पश्चाश्चर्य प्राप्त किये
१ द्विषं ग०, ल० । २ कपिल क०, ख०, ग०, घ० । ३ विज्ञान ल० । ४ इरिनील ल० । २१
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