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द्विषष्टितम पर्व
१६६ तस्य नाम्नव निर्मिनहृदयाः प्राकृतद्विषः । वमन्ति वैरम वा विनम्रा भयविह्वलाः ॥ ४४९ ॥ न सन्ति सहजास्तस्य शत्रवः शुद्धचेतसः। विभज्यान्वयजैविश्वैस्तद्राज्यं भुज्यते यतः ॥ ४५० ॥ कृत्रिमाः केन जायन्ते रिपवस्तस्य भूभुजः । मालेवाज्ञा हतावहरुह्यते यदि मूर्द्धभिः ॥ ४५१ ॥ विनम्रविश्वविधेशमुकुटाग्रमणित्विषा । स पादपीठपर्यन्ते विधचे धनुरामरम् ॥ ४५२ ॥ यशः कुन्देन्दुनिर्भासि तस्यारातिजयार्जितम् । कन्या गायन्ति दिग्दन्तिदन्तपर्यन्तके कलम् ॥ ४५३ ॥ दुर्दमा विद्विषस्तेन 'दान्ता यन्त्रेव दन्तिनः । दमितारिति ख्याति सन्धरोऽन्वर्थपेशलम् ॥ ४५४ ॥ सस्य शौर्यानलो भस्मिताखिलारातिरिन्धनः । जाज्वलीति तथाप्यग्निकुमारामरभीषणः ॥ ४५५ ॥ प्रेषितः श्रीमता तेन देवेनाहं युवां प्रति । प्रीतये याचितं तस्माद्दातव्यं नर्तकीद्वयम् ॥ ४५६ ॥ युष्मदीयं भुवि ख्यातं योग्यं तस्यैव तद्यतः । युवयोः स हि तहानात्सुप्रसन्नः फलिष्यति ॥ ४५७ ॥ इत्यब्रवीददः श्रुत्वा तमावासं प्रहित्य तौ । किं कार्यमिति पृच्छन्तौ स्थितावाहूय मन्त्रिणः ॥४५८॥ तयोः पुण्योदयात्सद्यस्तृतीयभवदेवताः । सुनिरूप्य स्वरूपाणि रताः स्वयं समुपाश्रयन् ॥ ४५९ ॥ वयं युवाभ्यां संयोज्या निजाभिप्रेतकर्मणि । ४अस्थाने माकुलीभूतामित्याहुश्वाहितादराः ॥ ४६० ॥ श्रुत्वैतद्राज्यभारं स्वं निधाय निजमन्त्रिषु । नर्तकीवेषमादाय राज्ञाऽऽवां प्रेषिते ततः ॥ ४६१ ॥
समान देदीप्यमान राजा दमितारिकी प्रतापरूपी अग्नि निरन्तर जलती रहती है, वह अपराधी तथा झूठमूठके अभिमानी मनुष्योंको शीघ्र ही जला डालती है ॥ ४४८ ।। उसका नाम लेते ही स्वभावसे बैरी मनुष्योंका हृदय फट जाता है। वे भयसे इतने विह्वल हो जाते हैं कि विनम्र होकर शीघ्र ही वैर तथा अस्त्र दोनों ही छोड़ देते हैं ॥ ४४६ ॥ उसका चित्त बड़ा निर्मल है, वह अपने वंशके सब लोगोंके साथ विभाग कर राज्यका उपभोग करता है इसलिए परिवारमें उत्पन्न हुए शत्रु उसके हैं ही नहीं ॥ ४५० ।। जब तिरस्कारको न चाहनेवाले लोग उसकी आज्ञाको मालाके समान अपने मस्तक पर धारण करते हैं तब उस राजाके कृत्रिम शत्रु तो हो ही कैसे सकते हैं ? ।। ४५१ ।। वह अपने चरणपीठके समीप नम्रीभूत हुए समस्त विद्याधरोंके मुकुटके अग्रभागमें मणियोंकी किरणोंसे इन्द्रधनुष बनाया करता है।४५२॥ शत्रुओंको जीतनेसे उत्पन्न हुआ उसका यश कुन्द पुष्प तथा चन्द्रमाके समान शोभायमान है, उसके ऐसे मनोहर यशको कन्याएँ दिग्गजोंके दाँतोंके समीप निरन्तर गाती रहती हैं ।। ४५३ ।। जिस प्रकार महावतोंके द्वारा बड़े-बड़े दुर्जेय हाथी वश कर लिये जाते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा भी बड़े-बड़े दुर्जेय राजा वश कर लिये गये थे इसलिए उसका 'दमितारिए यह नाम सार्थक प्रसिद्धिको धारण करता है ॥ ४५४ ॥ यद्यपि उसकी प्रतापरूपी अग्मिने समस्त शत्रुरूपी इन्धनको जला डाला है तो भी अग्निकुमारदेवके समान भयंकर दिखनेवाली उसकी प्रतापरूपी अग्नि निरन्तर जलती रहती है ॥ ४५५ ॥ उसी श्रीमान दमितारि राजाने दोनों नृत्यकारिणियाँ माँगनेके लिए मुझे आपके पास भेजा है सो प्रीति बढ़ानेके लिए आपको अवश्य देना चाहिए ॥४५६॥आपकी नृत्यकारिणियाँ पृथिवीमें प्रसिद्ध हैं अतः उसीके योग्य हैं। नृत्यकारिणियोंके देनेसे वह तुम दोनोंपर प्रसन्न होगा और अच्छा फल प्रदान करेगा। इस प्रकार उस दूतने कहा । राजाने उसे सुनकर दूतको तो विश्राम करनेके लिए भेजा और मन्त्रियोंको बुलाकर पूछा कि इस परिस्थितिमें क्या करना चाहिए ? ॥ ४५७-४५८ ।। उनके पुण्य कर्मके उदयसे तीसरे भवकी विद्यादेवताएँ शीघ्र ही आ पहुँची और अपना स्वरूप दिखाकर स्वयं ही कहने लगी कि हमलोग
आपके द्वारा अपने इष्ट कार्यमें लगानेके योग्य हैं। आप लोग अस्थानमें व्यर्थ ही व्याकुल न होंऐसा उन्होंने बड़े आदरसे कहा ॥ ४५६-४६० ।। देवताओंकी बात सुन दोनों भाइयोंने अपना राज्यका भार अपने मन्त्रियोंपर रखकर नर्तकियोंका वेष धारण किया और दूतसे कहा कि चलो चलें,
१ दाता यन्तेव (१) ल० । २ तौ ल• । ३ निजाभिप्रेम-ल. । ४ श्रास्थाने ख० ।
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