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द्विषष्टितमं पब
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तृतीये पुष्कराख्यातद्वीपऽपरसुराचलात् । प्रतीच्यां वीतशोकाख्यं सरिद्विषयमध्यगम् ॥ ३६४ ॥ पुरं चक्रध्वजस्तस्य पतिः कनकमालिका । देवी कनकपमादिलते जाते तयोः सुते ॥ ३६५॥ विद्युन्मत्याश्च तस्यैव देव्याः पद्मावती सुता। याति काले सुखं तेषां कदाचित्काललब्धितः ॥ ३६६ ॥ प्रपीतामितसेनाख्यागणिनीवाग्रसायना । सुते कनकमाला च कल्पेऽजनिषतादिमे ॥ ३६७ ॥ सुराः पद्मावती वीक्ष्य गणिकां कामुकद्वयम् । प्रसाध्यमानां तचित्ताऽभूतत्र सुरलक्षिका ॥ ३६८॥ ततः कनकमालैत्य त्वमभूर्मणिकुण्डली । सुताद्वयं च तद्नपुरेऽभूतां नृपात्मजौ ॥ ३६९ ॥ स्वश्च्युत्वाऽनन्तमत्याख्या सुरवेश्याप्यजायत । तद्धतोर्वतते युद्धमद्य तद्राजपुत्रयोः॥ ३७० ॥ इति जैनीमिमां वाणीमाकान्यायकारिणौ । युवामज्ञातधर्माणी निषेद्धमहमागतः ॥ ३७१ ॥ इति तद्वचनाद्वीतकलहो जातसंविदौ । सद्यः सम्भूतनिर्वेगौ सुधर्मगुरुसन्निधौ ॥ ३७२ ॥ दीक्षामादाय निर्वाणमार्गपर्यन्तगामिनौ । क्षायिकानन्तवोधादिगुणो निर्वृतिमापतुः ॥ ३७३ ॥ तदानन्तमतिश्चान्तः सम्पूर्णश्रावकवता । नाकलोकमवापाप्यं न किं वा सदनुग्रहात् ॥ ३७४ ॥ सौधर्मकल्पे श्रीषेणो विमाने श्रीप्रभोऽभवत् । देवी श्रीनिलयेऽविद्युत्प्रभाऽभूत् सिंहनन्दिता ॥ ३७५ ॥ ब्राह्मण्यनिन्दिते चास्तां विमाने विमलप्रभे । देवी शुक्लप्रभा नाम्ना देवोऽत्र विमलप्रभः ॥ ३७६ ॥ पञ्चपल्योपमप्रान्ते श्रीषेणः प्रच्युतस्ततः । अर्ककीर्तेः सुतः श्रीमानजनिष्ठास्त्वमीहशः ॥ ३७७ ॥
४तव ज्योतिःप्रभा कान्ताऽजनि सा सिंहनन्दिता । आसीदनिन्दिता चायं देवी श्रीविजयाह्वयः ॥३७८॥ सुनकर मैंने अपने पूर्वभव पूछे। उत्तरमें वे कहने लगे---॥ ३६१-३६३ ।। कि तीसरे पुष्करवर द्वीपमें पश्चिम मेरुपर्वतसे पश्चिमकी ओर सरिद् नामका एक देश है । उसके मध्यमें वीतशोक नामका नगर है। उसके राजाका नाम चक्रध्वज था, चक्रध्वजकी स्त्रीका नाम कनकमालिका था। उन दोनोंके कनकलता और पद्मलता नामकी दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई ।। ३६४-३६५ ।। उसी राजाकी एक विद्युन्मति नामकी दूसरी रानी थी उसके पद्मावती नामकी पुत्री थी। इस प्रकार इन सबका समय सुखसे बीत रहा था। किसी दिन काललब्धिके निमित्तसे रानी कनकमाला और उसकी दोनों पुत्रियोंने अमितसेना नामकी गणिनीके वचनरूपी रसायनका पान किया जिससे वे तीनों ही मरकर प्रथम स्वर्गमें देव हुए। इधर पद्मावतीने देखा कि एक वेश्या दो कामियोंको प्रसन्न कर रही है उसे देख पद्मावतीने भी वैसे ही होनेकी इच्छा की । मरकर वह स्वर्गमें अप्सरा हुई ॥ ३६६-३६८ ।। तदनन्तर कनकमालाका जीव, वहाँ से चयकर मणिकुण्डली नामका राजा हुआ है और दोनों पुत्रियोंके जीव रत्नपुर नगरमें राजपुत्र हुए हैं। जिस अप्सराका उल्लेख ऊपर आ चुका है वह स्वर्गसे चय कर अनन्तमति हुई है । इसी अनन्तमतिको लेकर आज तुम दोनों राजपुत्रोंका युद्ध हो रहा है ।। ३६६।। ३७० । इस प्रकार जिनेन्द्रदेवकी कही हुई वाणी सुनकर, अन्याय करने वाले और धर्मको न जाननेवाले तुम लोगोंको रोकनेके लिए मैं यहाँ आया हूँ ॥ ३७१ । इस प्रकार विद्याधरके वचनोंसे दोनोंका कलह दर हो गया, दोनोंको आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया, दोनोंको शीघ्र ही वैराग्य उत्पन्न हो गया, दोनोंने सुधर्मगुरुके पास दीक्षा ले ली, दोनों ही मोक्षमार्गके अन्त तक पहुँचे, दोनों ही क्षायिक अनन्तज्ञानादि गुणोंके धारक हुए और दोनों ही अन्तमें निर्वाणको प्राप्त हुए ॥३७२-३७३।। तथा अनन्तमतिने भी हृदयमें श्रावकके सम्पूर्ण व्रत धारण किये और अन्त में स्वर्गलोक प्राप्त किया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनोंके अनुग्रहसे कौन सी वस्तु नहीं मिलती ? ॥ ३७४ ॥ राजा श्रीषेणका जीव भोगभूमिसे चलकर सौधर्म स्वर्गके श्रीप्रभ विमानमें श्रीप्रभ नामका देव हुआ, रानी सिंहनन्दिताका जीव उसी स्वर्गके श्रीनिलय विमानमें विद्युत्प्रभा नामकी देवी हुई ।। ३७५ ॥ सत्यभामा ब्राह्मणी और अनिन्दिता नामकी रानीके जीव क्रमशः विमलप्रभ विमानमें शुक्लप्रभा नामकी देवी और विमलप्रभ नामके देव हुए ॥३७६॥ राजा श्रीषेणका जीव पांच पल्य प्रमाण आयके अन्तमें वहाँसे चय कर इस तरहकी लक्ष्मीसे सम्पन्न तू अर्ककीर्तिका पुत्र हुआ है ।। ३७७ ॥ सिंहनन्दिता तुम्हारी
१ तदानन्तमतिश्चारु ख०, ग० । २ श्रीप्रमेऽभवत् ल०।३-नजनिष्ट-ल। ४ तव द्योतिः क, प०, भवज्योतिः ख०।
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