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द्विषष्टितम पर्व
प्रभावती प्रलापिन्या निक्षेपिण्या च या स्मृता । १शवरी परा चाण्डाली मातङ्गीति च कीर्तिता ॥३९५॥ गौरी षडङ्गिका श्रीमकन्या च शतसंकुला। कुभाण्डीति च विख्याता तथा विरलवेगिका ॥३९६॥ रोहिण्यतो मनोवेगा महावेगाह्वयापि च । चण्डवेगा सचपलवेगा लघुकरीति च ॥ ३९७ ।। पर्णलध्वाख्यका वेगावतीति प्रतिपादिता । शीतोष्णदे च वेताल्यौ महाज्वालाभिधानिका ॥३९८॥ छेदनी सर्वविद्यानां युद्धवीर्येति चोदिता। बन्धानां मोचनी चोका प्रहारावरणी तथा ॥३९९॥ भामर्या भोगिनीत्यादिकुलजातिप्रसाधिता। विद्यास्तासामयं पारं गत्वा योगीव निर्बभौ ॥४०॥ श्रेणीद्वयाधिपत्येन विद्याधरधराधिपः । प्राप्य तश्चक्रवर्तित्वं चिरं भोगानभुङ्क्त सः ॥ ४०१ ॥ कदाचित्खचराधीशश्चारणाय यथाविधि । दानं दमवराख्याय दत्वाऽऽपाश्चर्यपञ्चकम् ॥ ४०२ ॥ अन्यदाऽमिततेजःश्रीविजयो विनताननौ । नत्वाऽमरगुरु देवगुरुंच मुनिपुङ्गवम् ॥ ४०३ ॥ दृष्टा धर्मस्य याथाय पीत्वा तद्वचनामृतम् । अजरामरतां प्राप्ताविव तोषमुपेयतुः ॥ ४०४ ॥ पुनः श्रीविजयोऽप्राक्षीदवसम्बन्धमात्मनः । पितुः स भगवान् प्राह प्रथमः प्रास्तकल्मषः ॥४०५॥ साकल्येन तदाख्यातं विश्वनन्दिभवादितः । समाकर्ण्य तदाख्यान भोगे कृतनिदानकः॥ ४०६ ॥ किञ्चित्कालं समासाथ खभूचरसुखामृतम् । विपुलादिमतेः पार्श्वे विमलादिमतेश्च तौ ॥ ४०७ ॥ महीभुजौ निशम्यैकमासमात्रात्मजीवितम् । दत्त्वाऽर्कतेजसे राज्यं श्रीदत्ताय च सादरम् ॥ ४०८ ॥ कृताष्टाशिकसरपूजी मुनीशश्चन्दने वने । समीपे नन्दनाख्यस्य त्यक्त्वा सङ्ग तयोः खगेट ॥४०९॥ -प्रायोपगमसंन्यासविधिनाराध्य शुखुधीः। नन्द्यावर्तेऽभवत्कल्पे रविचूलस्खयोदशे ॥ ४१०॥ अभूच्छीविजयोऽप्यत्र स्वस्तिके मणिचूलकः । विंशत्यब्ध्युपमायुष्यौ जीवितावसितौ ततः॥ ४११ ॥
प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापिनी, निक्षेपणी, शर्वरी, चांडाली, मातङ्गी, गौरी, षडङ्गिका, श्रीमत्कन्या, शतसंकुला, कुभाण्डी, विरलवेगिका, रोहिणी, मनोवेगा, महावेगा, चण्डवेगा, चपलवगा, लघुकरी, पर्णलघु, वेगावती, शीतदा, उष्णदा, वेताली, महाज्वाला, सर्वविद्याछेदिनी, युद्धवीर्या, बन्धमोचनी, प्रहारावरणी, भ्रामरी, अभोगिनी इत्यादि कुल और जातिमें उत्पन्न हुई अनेक विद्याएँ सिद्ध की। उन सब विद्याओंका पारगामी होकर वह योगीके समान सुशोभित हो रहा ।। ३६१-४०० ।। दोनों श्रणियोंका अधिपति होनेसे वह सब विद्याधरोंका राजा था और इसप्रकार विद्याधरोंका चक्रवतीपना पाकर वह चिरकाल तक भोग भोगता रहा ।। ४०१॥ किसी एक दिन विद्याधरोंके अधिपति अमिततेजने दमवर नामक चारण ऋद्धिधारी मुनिको विधिपूर्वक आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये ॥४०२॥ किसी एक दिन अमिततेज तथा श्रीविजयने मस्तक झुकाकर अमरगुरु और देवगुरु नामक दो श्रेष्ठ मुनियोंको नमस्कार किया, धर्मका यथार्थ स्वरूप देखा, उनके वचनामृतका पान किया और ऐसा संतोष प्राप्त किया मानो अजर-अमरपना ही प्राप्त कर लिया हो ।। ४०३-४०४ ।। तदनन्तर श्रीविजयने अपने तथा पिताके पूर्वभवोंका सम्बन्ध पूछा जिससे समस्त पापोंको नष्ट करनेवाले पहले भगवान् अमरगुरु कहने लगे ।। ४०५ ।। उन्होंने विश्वनन्दीके भवसे लेकर समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर अमिततेजने भोगोंका निदानबन्ध किया ।। ४०६॥ अमिततेज तथा श्रीविजय दोनोंने कुछ काल तक विद्याधरों तथा भूमि-गोचरियोंके सुखामृतका पान किया। तदनन्त दोनोंने विपुलमति और विमलमति नामके मुनियोंके पास 'अपनी आयु एक मास मात्रकी रह गई है। ऐसा सुनकर अर्कतेज तथा श्रीदत्त नामके पुत्रोंके लिए राज्य दे दिया, बड़े आदरसे आष्टाह्निक पूजा की तथा नन्दन नामक मुनिराजके समीप चन्दनवनमें सब परिग्रहका त्याग कर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर लिया। अन्तमें समाधिमरण कर शुद्ध बुद्धिका धारक विद्याधरोंका राजा अमिततेज तेरहवें स्वर्गके नन्द्यावर्त विमानमें रविचूल नामका देव हुआ और श्रीविजय भी इसी स्वर्गके स्वस्तिक विमानमें मणिचूल नामका देव हुआ। वहाँ दोनोंकी आयु बीस सागरकी थी। आयु समाप्त होने पर वहाँसे च्युत हुए ॥४०७-४११ ।।
१शवरीया च ल०। २ प्रहाराचरणी ल०३ मुनिपुङ्गवी ग०। ४ माहात्म्यं ल०।५ प्रथमंग।
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