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महापुराणे उत्तरपुराणम्
ममेति शेषमप्याह ततोऽसावप्यनुद्भवम् ' । तनूजं पुररक्षायै निर्वर्त्याप्रजान्विता ॥ २६५ ॥ रथनूपुरमुद्दिश्य गता गगनवर्त्मना । स्वदेशचरचारोक्त्या विदितामिततेजसा ॥ २६६ ॥ महाविभूत्या प्रत्येत्य मामिका परितुष्यता । प्रवेशिता सकेतूचैः पुरमाबद्धतोरणम् ॥ २६७ ॥ प्राघूर्णविधि विश्वं विधाय विधिवत्तयोः । तदागममकार्थं च ज्ञात्वा विद्याधराधिपः ॥ २६८ ॥ दूर्तं मरीचिनामानमिन्द्राशनिसुतं प्रति । प्रहित्य तन्मुखात्तस्य विदित्वा दुस्सहं वचः ॥ २६९ ॥ आलोच्य मन्त्रिभिः सार्द्धमुच्छेत्तुं तं मदोद्धतम् । मैथुनाय महेच्छाय निजायात्र समागतम् ॥ २७० ॥ युद्धवीर्य प्रहरणावरणं वधमोचनम् । इति विद्यात्रयं शत्रुध्वंसार्थमदितादरात् ॥ २७१ ॥ रश्मिवेगसुवेगादिसहस्रार्द्धात्मजैः सह । पोदनेशं व्रजेत्युक्त्वा शत्रोरुपरि दर्पिणः ॥ २७२ ॥ सहस्ररश्मिना सार्द्धं ज्यायसा स्वात्मजेन सः । महाज्वालायां सर्वविद्याच्छेदनसंयुताम् ॥ २७३॥ सञ्जयन्तमहाचैत्यमूले साधयितुं गतः । ड्रीमन्तं पर्वतं विद्यां विद्यानां साधनास्पदम् ॥ २७४ ॥ रश्मिवेगादिभिः सार्द्धं श्रुत्वा श्रीविजयागमम् । युद्धायाशनिघोषेण प्रेषिताः स्वसुताः क्रुधा ॥ २७५ ॥ सुघोषः शतघोषाख्याः स सहस्रादिघोषकः । युद्ध्वाऽन्येऽपि च मासार्द्धं सर्वे भङ्गमुपागमन् ॥ २७६ ॥ तद् बुद्ध्वा क्रोधसन्तप्तो योद्धुं स्वयमुपेयिवान् । स्वनाशपिशुनाशेषघोषणोऽशनिघोषकः ॥ २७७॥ युद्धे श्रीविजयोऽप्येनं विधातुं प्राहरद् द्विधा । भ्रामरी विद्यया सोऽपि द्विरूपः समजायत ॥ २७८॥ चतुर्गुणत्वमायातौ पुनस्तौ तेन खण्डितौ । संग्रामोऽशनिघो बैकमायाऽभूदिति खण्डनात् ॥ २७९ ॥
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नामक विद्याधर अमिततेजका सेवक है । हे माता ! आज इसने मेरा जो उपकार किया है वह तुझने भी नहीं किया ॥ २६४ ॥ ऐसा कहकर उसने जो-जो बात हुई थी वह सब कह सुनाई । तदनन्तर स्वयंप्रभा ने छोटे पुत्रको तो नगरकी रक्षाके लिए वापिस लौटा दिया और बड़े पुत्रको साथ लेकर वह आकाशमार्ग से रथनूपुर नगरको चली। अपने देशमें घूमनेवाले गुप्तचरोंके कहनेसे श्रमिततेजको इस बातका पता चल गया जिससे उसने बड़े वैभवके साथ उसकी अगवानी की तथा संतुष्ट होकर जिसमें बड़ी ऊँची पताकाएँ फहरा रही हैं और तोरण बाँधे गये हैं ऐसे अपने नगरमें उसका प्रवेश कराया ।। २६५-२६७ ।। उस विद्याधरोंके स्वामी अमिततेजने उनका पाहुनेके समान सम्पूर्ण स्वागतसत्कार किया और उनके आनेका कारण जानकर इन्द्राशनिके पुत्र अशनिघोषके पास मरीचि नामका दूत भेजा । उसने दूतसे असह्य वचन कहे । दूतने वापिस आकर वे सब वचन अमिततेजसे कईउन्हें सुनकर अमिततेजने मन्त्रियोंके साथ सलाह कर मदसे उद्धत हुए उस अशनिघोषको नष्ट करनेका दृढ़ निश्चय कर लिया । उच्च अभिप्राय वाले अपने बहनोईको उसने शत्रुओंका विध्वंस करने के लिए वंशपरम्परागत युद्धवीर्य, प्रहरणावरण और बन्धमोचन नामकी तीन विद्याएँ बड़े आदरसे दीं ।। २६८-२७१ ।। तथा रश्मिवेग सुवेग आदि पाँचसौ पुत्रोंके साथ-साथ पोदनपुरके राजा श्रीविजयसे अहंकारी शत्रुपर जानेके लिए कहा ।। २७२ ॥ और स्वयं सहस्ररश्मि नामक अपने बड़े पत्रके साथ समस्त विद्याओंको छेदनेवाली महाज्वाला नामकी विद्याको सिद्ध करनेके लिए विद्याएँ सिद्ध करनेकी जगह हीमन्त पर्वत पर श्री सञ्जयन्त मुनिकी विशाल प्रतिमाके समीप गया ।। २७३-२७४ ।। इधर जब अशनिघोषने सुना कि श्रीविजय युद्धके लिए रश्मिवेग आदिके साथ आ रहा है तब उसने क्रोधसे सुघोष, शतघोष, सहस्रघोष आदि अपने भेजे। उसके वे समस्त पुत्र पुत्र तथा अन्य लोग पन्द्रह दिन तक युद्ध कर अन्तमें पराजित हुए। जिसकी समस्त घोषणाएँ अपने नाशको सूचित करनेवाली हैं ऐसे अशनिघोषने जब यह समाचार सुना तब वह क्रोधसे सन्तप्त होकर स्वयं ही युद्ध करनेके लिए गया ।। २७५ - २७७ ॥ इधर युद्धमें श्रीविजयने अशनिघोषके दो टुकड़े करनेके लिए प्रहार किया उधर भ्रामरी विद्यासे उसने दो रूप बना लिये। श्रीविजयने नष्ट करनेके लिए उन दोनोंके दो-दो टुकड़े किये तो उधर अशनिघोषने चार रूप बना लिये। इस प्रकार वह सारी
१ श्रनु पश्चाद् उद्भवतीति श्रनूद्भवस्तम् श्रनुजमिति यावत् ।
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साव-ल० ।
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