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महापुराणे उत्तरपुराणम् स्थितां कुक्कुटसर्पण दष्टाहमिति सम्श्रमात् । म्रियमाणामिवालोक्य विनिवृत्यागतः स्वयम् ॥२३५॥ अहार्य तद्विर्ष ज्ञात्वा मणिमन्त्रौषधादिभिः। सुखिग्धः पोदनाधीशो मर्त सह तयोत्सुकः ॥२३॥ सूर्यकान्तसमुद्भूतदहनज्वलितेन्धनः । चितिका कान्तया सार्द्धमारोह शुचाकुलः ॥ २३० ॥ तदैव खेचरी कौचित् तत्र सनिहितौ तयोः। विद्याविच्छेदिनी विद्या स्मृत्वैकेन महौजसा ॥२३८ ॥ हताऽसौ भीतवैताली वामपादेन दर्शित-। स्वरूपास्य पुरः स्थातुमशक्काऽगादरश्यताम् ॥ २३९ ॥ तद्विलोक्य महीपालो नितरां विस्मयं गतः। किमेतदिस्यवोचर खचरचाह तत्कथाम् ॥ २४ ॥ द्वीपेऽस्मिन् दक्षिणश्रेण्यां भरते खचराचले । ज्योतिःप्रभुधराधीशः सम्भिनोऽहं मम प्रिया ॥ २१ ॥ संज्ञया सर्वकल्याणी सूनुर्वीपशिखादयः । एष मे स्वामिना गत्वा रथनूपुरभूभुजा ॥ २४२ ॥ विहत्तं विपुलोद्याने नलान्तशिखरश्रुते । ततो निवर्तमानः सन् स्वयानकविमानगाम् ॥ २४३ ॥ क मे श्रीविजयः स्वामी रथनूपुरभूपते । क मां पाहीति साक्रोशस्वनितां करणस्वनम् ॥ २४४ ॥ श्रत्वाहं तत्र गत्वाऽऽख्य कस्त्वं का वा हरस्यमूम् । इत्यसौ चाह सक्रोध चशान्तचमराधिपः ॥२५॥ खगेशोऽशनिघोषाख्यो हठादेना नयाम्यहम् । भवतो यदि सामर्थ्यमस्येोहीतिमोचय ॥२४६ ॥ तच्छ्रुत्वा मत्प्रभोरेषा नीयते तेन सानुजा । सामान्यवस्कथं यामि हन्म्येनमिति निश्चयात् ॥२७॥ योदं प्रक्रममाणं मां निवार्यानेन मा कृथाः। प्रथेति युद्ध निर्बन्धात्पोदनाख्यपुराधिपः॥ २८॥ ज्योतिर्वने वियोगेन मम शोकानलाहतः । वर्तते तत्र गत्वा तं मदवस्था निवेदय ॥ २४९ ।।
द्वारा प्रेरित हुई वैताली विद्या सुताराका रूप रखकर बैठ गई ।। २३३-२३४ ।। जब श्रीविजय वापिस लौटकर आया तब उसने कहा कि मुझे कुक्कुटसाँपने डस लिया है। इतना कह कर उसने बड़े संभ्रमसे ऐसी चेष्टा बनाई जैसे मर रही हो । उसे देख राजाने जाना कि इसका विष मणि, मन्त्र तथा औषधि आदिसे दूर नहीं हो सकता। अन्तमें निराश होकर स्नेहसे भरा पोदनाधिपति उस कृत्रिम सुताराके साथ मरनेके लिए उत्सुक हो गया। उसने एक चिता बनाई, सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न अनिके द्वारा उसका इन्धन प्रज्वलित किया और शोकसे व्याकुल हो उस कपटी सुताराके साथ चिता पर आरूढ़ हो गया ।। २३५-२३७ ।। उसी समय वहाँसे कोई दो विद्याधर जा रहे थे उनमें एक महा तेजस्वी था उसने विद्याविच्छेदिनी नामकी विद्याका स्मरण कर उस भयभीत वैतालीको बायें पैरसे ठोकर लगाई जिससे उसने अपना असली रूप दिखा दिया। अब वह श्री-- विजयके सामने खड़ी रहने के लिए भी समर्थ न हो सकी अतः अदृश्यताको प्राप्त हो गई ॥ २२६२३६ ।। यह देख राजा श्रीविजय बहुत भारी आश्चर्यको प्राप्त हुए। उन्होंने कहा कि यह क्या है ? उत्तरमें विद्याधर उसकी कथा इस प्रकार कहने लगा ।। २४०॥
___इस जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रके विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक ज्योति प्रभ नामका नगर है। मैं वहाँका राजा संभिन्न हूँ, यह सर्वकल्याणी नामकी मेरी स्त्री है और यह दीपशिख नामका मेरा पुत्र है । मैं अपने स्वामी रथनूपुर नगरके राजा अमिततेजके साथ शिखरनल नामसे प्रसिद्ध विशाल उद्यानमें विहार करनेके लिए गया था। वहाँसे लौटते समय मैंने मार्गमें सुना कि एक स्त्री अपने विमान पर बैठी हुई रो रही है और कह रही है कि 'मेरे स्वामी श्रीविजय कहाँ हैं ? हे रथनूपुरके नाथ ! कहाँ हो ? मेरी रक्षा करो।' इस प्रकार उसके करुण शब्द सुनकर मैं वहाँ गया और बोला कि तू कौन है ? तथा किसे हरण कर ले जा रहा है? मेरी बात सुन कर वह बो चमरचञ्च नगरका राजा अशनिघोष नामका विद्याधर हूँ । इसे जबर्दस्ती लिए जा रहा हूँ, यदि आप में शक्ति है तो आओ और इसे छुड़ाओ ।। २४१-२४६ ।। यह सुनकर मैंने निश्चय किया कि यह तो मेरे स्वामी अमिततेजकी छोटी बहिनको ले जा रहा है । मैं साधारण मनुष्यकी तरह कैसे चला जाऊँ ? इसे अभी मारता हूँ। ऐसा निश्चय कर मैं उसके साथ युद्ध करनेके लिए तत्पर हुआ ही था कि उस स्त्रीने मुझे रोककर कहा कि आग्रह वश वृथा युद्ध मत करो, पोदनपुरके राजा ज्योतिर्वनमें
१विमानके क., प. विमानगे ग० । विमानगा ल.।
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