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154 In the Mahapurana, Uttara Purana, Srivijaya, having been bitten by a serpent disguised as a rooster, feigned death in great distress. Seeing this, Podana, the king, knowing that the poison could not be cured by gems, mantras, or medicines, became eager to die with the deceitful woman out of affection. He built a pyre, ignited its fuel with fire born from the Surya Kanta gem, and, consumed by grief, ascended the pyre with the deceitful woman. When two celestial beings were passing by, one of them, a great sage, remembering the Vidya Vichchedini Vidya, kicked the terrified Vaitali with his left foot, causing her to reveal her true form. Unable to stand before Srivijaya, she vanished. Seeing this, King Srivijaya was filled with wonder. He asked, "What is this?" The celestial being then narrated the story: "In the southern range of the Vijaya mountain in the Bharat Kshetra of this Jambudvipa, there is a city called Jyoti Prabhu. I am the king of that city, Sambhinna. This is my wife, Sarvakalyani, and this is my son, Dipshikha. I had gone with my lord, Amittej, the king of Rathnupur, to the vast garden known as Shikharnal. On my return, I heard a woman crying on her celestial chariot, saying, 'Where is my lord, Srivijaya? O lord of Rathnupur, where are you? Protect me!' Hearing her sorrowful words, I went there and asked, 'Who are you? And whom are you taking away?' Hearing my words, she said, 'I am Ashanighosha, the celestial being, king of Chamarachanch city. I am being taken away by force. If you have the power, come and rescue me.' Hearing this, I decided that this must be my lord Amittej's younger sister. How could I go as an ordinary human? I will kill him right now. I was about to engage in battle with him when the woman stopped me, saying, 'Don't fight unnecessarily out of compulsion. The king of Podanpur is in Jyotirvana, consumed by the fire of grief due to my separation. Go there and inform him of my condition."
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________________ १५४ महापुराणे उत्तरपुराणम् स्थितां कुक्कुटसर्पण दष्टाहमिति सम्श्रमात् । म्रियमाणामिवालोक्य विनिवृत्यागतः स्वयम् ॥२३५॥ अहार्य तद्विर्ष ज्ञात्वा मणिमन्त्रौषधादिभिः। सुखिग्धः पोदनाधीशो मर्त सह तयोत्सुकः ॥२३॥ सूर्यकान्तसमुद्भूतदहनज्वलितेन्धनः । चितिका कान्तया सार्द्धमारोह शुचाकुलः ॥ २३० ॥ तदैव खेचरी कौचित् तत्र सनिहितौ तयोः। विद्याविच्छेदिनी विद्या स्मृत्वैकेन महौजसा ॥२३८ ॥ हताऽसौ भीतवैताली वामपादेन दर्शित-। स्वरूपास्य पुरः स्थातुमशक्काऽगादरश्यताम् ॥ २३९ ॥ तद्विलोक्य महीपालो नितरां विस्मयं गतः। किमेतदिस्यवोचर खचरचाह तत्कथाम् ॥ २४ ॥ द्वीपेऽस्मिन् दक्षिणश्रेण्यां भरते खचराचले । ज्योतिःप्रभुधराधीशः सम्भिनोऽहं मम प्रिया ॥ २१ ॥ संज्ञया सर्वकल्याणी सूनुर्वीपशिखादयः । एष मे स्वामिना गत्वा रथनूपुरभूभुजा ॥ २४२ ॥ विहत्तं विपुलोद्याने नलान्तशिखरश्रुते । ततो निवर्तमानः सन् स्वयानकविमानगाम् ॥ २४३ ॥ क मे श्रीविजयः स्वामी रथनूपुरभूपते । क मां पाहीति साक्रोशस्वनितां करणस्वनम् ॥ २४४ ॥ श्रत्वाहं तत्र गत्वाऽऽख्य कस्त्वं का वा हरस्यमूम् । इत्यसौ चाह सक्रोध चशान्तचमराधिपः ॥२५॥ खगेशोऽशनिघोषाख्यो हठादेना नयाम्यहम् । भवतो यदि सामर्थ्यमस्येोहीतिमोचय ॥२४६ ॥ तच्छ्रुत्वा मत्प्रभोरेषा नीयते तेन सानुजा । सामान्यवस्कथं यामि हन्म्येनमिति निश्चयात् ॥२७॥ योदं प्रक्रममाणं मां निवार्यानेन मा कृथाः। प्रथेति युद्ध निर्बन्धात्पोदनाख्यपुराधिपः॥ २८॥ ज्योतिर्वने वियोगेन मम शोकानलाहतः । वर्तते तत्र गत्वा तं मदवस्था निवेदय ॥ २४९ ।। द्वारा प्रेरित हुई वैताली विद्या सुताराका रूप रखकर बैठ गई ।। २३३-२३४ ।। जब श्रीविजय वापिस लौटकर आया तब उसने कहा कि मुझे कुक्कुटसाँपने डस लिया है। इतना कह कर उसने बड़े संभ्रमसे ऐसी चेष्टा बनाई जैसे मर रही हो । उसे देख राजाने जाना कि इसका विष मणि, मन्त्र तथा औषधि आदिसे दूर नहीं हो सकता। अन्तमें निराश होकर स्नेहसे भरा पोदनाधिपति उस कृत्रिम सुताराके साथ मरनेके लिए उत्सुक हो गया। उसने एक चिता बनाई, सूर्यकान्तमणिसे उत्पन्न अनिके द्वारा उसका इन्धन प्रज्वलित किया और शोकसे व्याकुल हो उस कपटी सुताराके साथ चिता पर आरूढ़ हो गया ।। २३५-२३७ ।। उसी समय वहाँसे कोई दो विद्याधर जा रहे थे उनमें एक महा तेजस्वी था उसने विद्याविच्छेदिनी नामकी विद्याका स्मरण कर उस भयभीत वैतालीको बायें पैरसे ठोकर लगाई जिससे उसने अपना असली रूप दिखा दिया। अब वह श्री-- विजयके सामने खड़ी रहने के लिए भी समर्थ न हो सकी अतः अदृश्यताको प्राप्त हो गई ॥ २२६२३६ ।। यह देख राजा श्रीविजय बहुत भारी आश्चर्यको प्राप्त हुए। उन्होंने कहा कि यह क्या है ? उत्तरमें विद्याधर उसकी कथा इस प्रकार कहने लगा ।। २४०॥ ___इस जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्रके विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक ज्योति प्रभ नामका नगर है। मैं वहाँका राजा संभिन्न हूँ, यह सर्वकल्याणी नामकी मेरी स्त्री है और यह दीपशिख नामका मेरा पुत्र है । मैं अपने स्वामी रथनूपुर नगरके राजा अमिततेजके साथ शिखरनल नामसे प्रसिद्ध विशाल उद्यानमें विहार करनेके लिए गया था। वहाँसे लौटते समय मैंने मार्गमें सुना कि एक स्त्री अपने विमान पर बैठी हुई रो रही है और कह रही है कि 'मेरे स्वामी श्रीविजय कहाँ हैं ? हे रथनूपुरके नाथ ! कहाँ हो ? मेरी रक्षा करो।' इस प्रकार उसके करुण शब्द सुनकर मैं वहाँ गया और बोला कि तू कौन है ? तथा किसे हरण कर ले जा रहा है? मेरी बात सुन कर वह बो चमरचञ्च नगरका राजा अशनिघोष नामका विद्याधर हूँ । इसे जबर्दस्ती लिए जा रहा हूँ, यदि आप में शक्ति है तो आओ और इसे छुड़ाओ ।। २४१-२४६ ।। यह सुनकर मैंने निश्चय किया कि यह तो मेरे स्वामी अमिततेजकी छोटी बहिनको ले जा रहा है । मैं साधारण मनुष्यकी तरह कैसे चला जाऊँ ? इसे अभी मारता हूँ। ऐसा निश्चय कर मैं उसके साथ युद्ध करनेके लिए तत्पर हुआ ही था कि उस स्त्रीने मुझे रोककर कहा कि आग्रह वश वृथा युद्ध मत करो, पोदनपुरके राजा ज्योतिर्वनमें १विमानके क., प. विमानगे ग० । विमानगा ल.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002728
Book TitleUttara Purana
Original Sutra AuthorGunbhadrasuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages738
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size20 MB
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