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द्विषष्टितम पर्व
१५३ जगाद भवता प्रोक्त युक्तमित्यभ्युपेत्य ते । सम्भूय मन्त्रिणो यक्षप्रतिबिम्ब नृपासने ॥ ३०॥ निवेश्य पोदनाधीशस्त्वमित्येनमपूजयत् । महीशोऽपि परित्यक्तराज्यभोगोपभोगकः ॥ २२०॥ प्रारब्धपूजादानादिनिजप्रकृतिमण्डलः । जिनचैत्यालये शान्तिकर्म कुर्वन्नुपाविशत् ॥ २२ ॥ सप्तमेऽहनि यक्षस्य प्रतिमायां महाध्वनिः । न्यपतनिष्टुरं मूग्निं सहसा भीषणोऽशनिः ॥ २२२ ॥ तस्मिन्नुपद्रवे शान्ते प्रमोदारपुरवासिनः । वर्द्धमानानकध्वानरकुर्वन्मुत्सवं परम् ॥ २२३॥
नैमितिकं समाहूय राजा सम्पूज्य दसवान् । तस्मै ग्रामशतं पद्मिनीखेटेन ससम्मदः ॥ २२४ ॥ विधाय विधिवद्भक्त्या शान्तिपूजापुरस्सरम् । महाभिषेक लोकेशामर्हता सचिवोरामाः॥ २२५ ॥ अष्टापदमयैः कुम्भैरभिषिच्य महीपतिम् । सिंहासन समारोप्य सुराज्ये प्रत्यतिष्टपत् ॥ २२६ ॥ एवं सुखसुखेनैव काले गच्छति सोऽन्यदा । विद्यां स्वमातुरादाय संसाध्याकाशगामिनीम् ॥ २२७ ॥ सुतारया सह ज्योतिर्वनं गत्वा रिरंसया । यथेष्टं विहरंस्तत्र सलीलं कान्तया स्थितः ॥ २२८ ॥ इतश्चमरचश्चाख्यपुरेशोऽशनिघोषकः । आसुर्याश्च सुतो लक्ष्ष्या महानिन्द्राशनेः खगः ॥ २२९ ॥ विद्यां स भामरी नाना प्रसाध्यायान्पुरं स्वकम् । सुतारां वीक्ष्य जातेच्छस्तामादातुं कृतोचमः ॥२३॥ कृत्रिमैणच्छलास्मादपनीय महीपतिम् । तद्रूपेण निवृत्यैत्य सुतारां दुरिताशयः ॥ २३ ॥ मृगोऽगाद् वायुवेगेन तं ग्रहीतुमवारयन् । आगतोऽहं प्रयात्यस्तमर्को यावः पुरं प्रति ॥ २३२ ॥ इत्युक्त्वाऽऽरोप्य तां खेटो विमानमगमत् ' शठः। गत्वाऽन्तरे स्वसौरूप्यशालिना दर्शितं निजम्॥२३॥ .रूपमालोक्य तत्कोऽयमिति सा विकलाऽभवत् । इतस्तत्प्रोक्तवैताली सुतारारूपधारिणीम् ॥२३॥
चाहिये ॥२१७-२१८ ।। उसकी यह बात सबने मान ली और कहा कि आपका कहना ठीक है। अनन्तर सब मन्त्रियोंने मिलकर राजाके सिंहासन पर एक यक्षका प्रतिबिम्ब रख दिया और तुम्ही पोदनपुरके राजा हो' यह कहकर उसकी पूजा की। इधर राजाने राज्यके भोग उपभोग सब छोड़ दिये, पूजा दान आदि सत्कार्य प्रारम्भ कर दिये और अपने स्वभाव वाली मण्डलीको साथ लेकर जिनचैत्यालयमें शान्ति कर्म करता हुआ बैठ गया ॥२१६-२२१॥ सातवें दिन उस यक्षकी मूर्ति पर बड़ा भारी शब्द करता हुआ भयंकर वन अकस्मात् बड़ी कठोरतासे आ पड़ा ॥२२२ ।। उस उपद्रवके शान्त होने पर नगरवासियोंने बड़े हर्षसे बढ़ते हुए नगाड़ोंके शब्दोंसे बहुत भारी उत्सव किया ॥२२३ ॥राजाने बड़े हर्षके साथ उस निमित्तज्ञानीको बुलाकर उसका सत्कार किया और पद्मिनीखेटके साथ-साथ उसे सौ गाँव दिये॥२२४॥ श्रेष्ठ मंत्रियोंने तीन लोकके स्वामी अरहन्त भगवानकी विधि-पूर्वक मक्तिके साथ शान्तिपूजा की, महाभिषेक किया और राजाको सिंहासन पर बैठा कर सुर्वणमय कलशोंसे उनका राज्याभिषेक किया तथा उत्तम राज्यमें प्रतिष्ठित किया ॥ २२५-२२६ ॥ इसके बाद उसका काल बहुत भारी सुखसे बीतने लगा। किसी एक दिन उसने अपनी मातासे आकाशगामिनी विद्या लेकर सिद्ध की और सुताराके साथ रमण करनेकी इच्छासे ज्योतिर्वनकी ओर गमन किया। वह वहाँ अपनी इच्छानुसार लीला-पूर्वक विहार करता हुआ रानीके साथ बैठा था, यहाँ चमरचंचपुरका राजा इन्द्राशनि, रानी आसुरीका लक्ष्मीसम्पन्न अशनिघोष नामका विद्याधरपत्र भ्रामरी विद्याको सिद्ध कर अपने नगरको लौट रहा था। बीचमें सुताराको देख कर उसपर उसकी इच्छा हुई और उसे हरण करनेका उद्यम करने लगा ॥ २२७-२३०॥ उसने एक कृत्रिम हरिणके छलसे राजाको सुताराके पाससे अलग कर दिया और वह दुष्ट श्रीविजयका रूप बनाकर सुताराके पास लौट कर वापिस आया ॥ २३१ ।। कहने लगा कि हे प्रिये ! वह मृग तो वायुके समान वेगसे चला गया । मैं उसे पकड़नेके लिए असमर्थ रहा अतः लौट आया हूँ, अब सूर्य अस्त हो रहा है इसलिए हम दोनों अपने नगरकी ओर चलें।। २३२ ।। इतना कहकर उस धर्त विद्याधरने सुताराको विमान पर बैठाया और वहाँ से चल दिया। बीचमें उसने अपना रूप दिखाया जिसे देख कर 'यह कौन है। ऐसा कहती हुई सुतारा बहुत ही विह्वल हुई। इधर उसी अशिनघोष विद्याधरके
१ निमित्तकं ग.। २-मममत्ततःल.।
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