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द्विषष्टितमं पर्व
इत्युक्त्वा क्षुत्पिपासादिद्वाविंशतिपरीषहैः । पीडितोऽसहमानोऽहं पद्मिनीखेटमाययौ ॥ १९१ ॥ तत्र तन्मातुलः सोमशर्मा चन्द्राननां 'सुताम् । हिरण्यलोमासम्भूतां प्रीत्या मह्यं प्रदत्तवान् ॥ १९२ ॥ द्रव्यार्जनं परित्यज्य निमित्ताभ्यासतत्परम् । सा मां निरीक्ष्य निर्विण्णा पितृदत्तधनक्षयात् ॥ १९३ ॥ भोजनावसरेऽन्येद्युर्धनमेतत्त्वदर्जितम् । इति पात्रेऽक्षिपद्रोषान्मद्वराटकसञ्चयम् ॥ १९४ ॥ रञ्जितस्फटिके तत्र तपन्नाभीषुसन्निधिम् ( ? ) । कान्ताक्षिप्तकरक्षालनाम्बुधारां च पश्यता ॥ १९५ ॥ मालाभं निश्चित्य तोषाभिषवपूर्वकम् । अमोघजिह्वनान्नाऽऽपमादेशस्तेऽधुना कृतः ॥ १९६ ॥ इत्यन्वाख्यत् स तच्छ्रुत्वा सयुक्तिकमसौ नृपः । चिन्ताकुलो विसज्यैनमुक्तवानिति मन्त्रिणः ॥ १९७ ॥ इदं प्रत्येयमस्योक्त' विचिन्त्येत्प्रतिक्रियाः । अभ्यर्णे मूलनाशे कः कुर्यात् कालविलम्बनम् ॥ १९८ ॥ तच्छुखा सुमतिः प्राह त्वामम्भोधिजलान्तरे । लोहमअषिकान्तस्थं स्थापयामेति रक्षितुम् ॥ मकरादिभयं तत्र विजयार्द्धगुहान्तरे । निदधाम इति श्रुत्वा स सुबुद्धिरभाषत ॥ २०० ॥ तद्वचोऽवसितौ प्राज्ञः पुरावित्तकवित्तदा । अथाख्यानकमित्याख्यत्प्रसिद्धं बुद्धिसागरः ॥ २०१ ॥ दुःशास्त्रश्रुतिदर्पिष्ठः सोमः सिंहपुरे वसन् । परिव्राट् स विवादार्थे जिनदासेन निर्जितः ॥ २०२ ॥ मृत्वा 'तत्रैव कालान्ते सम्भूय महिषो महान् । वणिग्लवणदुर्भारिचिरवाहवशीकृतः ॥ २०३ ॥ प्राक् पोषयद्भिर्निःशक्तिरिति पश्चादुपेक्षितः । जातिस्मरः पुरे बद्धवैरोऽप्यपगतासुकः ॥ २०४ ॥
१९९ ॥
स्वप्ननिमित्त कहलाता है ।। १६० ।। यह कहकर वह निमित्तज्ञानी कहने लगा कि क्षुधा प्यास आदि बाईस परिषदोंसे मैं पीडित हुआ, उन्हें सह नहीं सका इसलिए मुनिपद छोड़कर पद्मिनीखेट नामके नगरमें आ गया ।। १६१ ।। वहाँ सोमशर्मा नामके मेरे मामा रहते थे । उनके हिरण्यलोमा नामकी स्त्रीसे उत्पन्न चन्द्रमाके समान मुख वाली एक चन्द्रानना नामकी पुत्री थी । वह उन्होंने मुझे दी ।। १६२ ।। मैं धन कमाना छोड़कर निरन्तर निमित्तशास्त्रके अध्ययनमें लगा रहता था अतः धीरेधीरे चन्द्राननाके पिताके द्वारा दिया हुआ धन समाप्त हो गया । मुझे निर्धन देख वह बहुत विरक्त अथवा खिन्न हुई ॥ १६३ ॥ मैंने कुछ कौड़ियां इकट्ठी कर रक्खी थीं । सरे दिन भोजनके समय 'यह तुम्हारा दिया हुआ धन है' ऐसा कह कर उसने क्रोधवश वे सब कौड़ियां हमारे पात्रमें डाल दीं ।। १६४ ॥ उनमें से एक अच्छी कौड़ी स्फटिक मणिके बने हुए सुन्दर थाल में जा गिरी, उसपर जलाई हुई अमि फुलिने पड़ रहे थे ( ? ) उसी समय मेरी स्त्री मेरे हाथ धुलाने के लिए जलकी धारा छोड़ रही थी उसे देख कर मैंने निश्चय कर लिया कि मुझे संतोष पूर्वक अवश्य ही धनका लाभ होगा। आपके लिए यह आदेश इस समय अमोघजिह्व नामक मुनिराज किया है। इसप्रकार निमित्तज्ञानी ने कहा । उसके युक्तिपूर्ण वचन सुन कर राजा चिन्तासे व्यग्र हो गया । उसने निमित्तज्ञानीको तो विदा किया और मन्त्रियोंसे इस प्रकार कहाकि इस निमित्तज्ञानीकी बात पर विश्वास करो और इसका शीघ्र ही प्रतिकार करो क्योंकि मूलका ना उपस्थित होने पर विलम्ब कौन करता है ? ।। १६५ - १६८ ।। यह सुनकर सुमति मन्त्री बोला कि आपकी रक्षा करनेके लिए आपको लोहेकी सन्दूकके भीतर रखकर समुद्रके जलके भीतर बैठाये देते हैं ।। १६६ ।। यह सुनकर सुबुद्धि नामका मंत्री बोला कि नहीं, वहाँ तो मगरमच्छ आदिका भ रहेगा इसलिए विजयार्ध पर्वतकी गुफामें रख देते हैं ।। २०० ।। सुबुद्धिकी बात पूरी होते ही बुद्धिमान् तथा प्राचीन वृत्तान्तको जानने वाला बुद्धिसागर नामका मन्त्री यह प्रसिद्ध कथानक कहने लगा । २०१ ॥
इस भरत क्षेत्रके सिंहपुर नगरमें मिथ्याशास्त्रोंके सुननेसे अत्यन्त घमण्डी सोम नामका परिव्राजक रहता था । उसने जिनदासके साथ वादविवाद किया परन्तु वह हार गया ॥ २०२ ॥ आयुके अन्तमें मर कर उसी नगरमें एक बड़ा भारी भैंसा हुआ । उसपर एक वैश्य चिरकाल तक नमकका बहुत भारी बोझ लादता रहा ।। २०३ ।। जब वह बोझ ढोनेमें असमर्थ हो गया तब उसके
१ शुभाम् ल० । २ कांकाक्षिप्तं ल० । ३ तथैव ग० । तवैव ल० |
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