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महापुराणे उत्तरपुराणम्
तावर्कविधुसाशौ त्रिपृष्ठविजयौ विभू । भरतार्द्धाधिपत्येन भातः स्म ध्वस्तविद्विषौ ॥ १४५ ॥ नृपेन्द्रैः खेचराधीशैर्व्यन्तरैर्मागधादिभिः । कृताभिषेकः सम्प्राप त्रिपृष्टः पृष्ठतां क्षितेः ॥ १४६ ॥ आधिपत्यं द्वयोः श्रेण्योविंततारादिकेशवः । हृष्टः स्वयम्प्रभापित्रे न स्यात्किं श्रीमदाश्रयात् ॥ १४७॥ असिः शङ्खो धनुश्चक्रं शक्तिर्दण्डो गदाभवन् । रत्नानि सप्त चक्रेशो रक्षितानि मरुद्गणैः ॥ १४८ ॥ रत्नमाला हलं भास्वद्रामस्य मुशलं गदा । महारत्नानि चत्वारि बभूवुर्भाविनिर्वृतेः ॥ १४९ ॥ देव्यः स्वयंप्रभामुख्याः सहस्राण्यस्य षोडश । बलस्याष्टसहस्त्राणि कुलरूपगुणान्विताः ॥ १५० ॥ अर्ककीर्तेः कुमारस्य ज्योतिर्मालां खगाधिपः । प्राजापत्यविवाहेन महत्या सम्पदाग्रहीत् ॥ १५१ ॥ तयोरमिततेजाश्च सुतारा चाभवत्सुता । प्रतिपच्चन्द्रयोः शुलपक्षरेखेव चैन्दवी ॥ १५२ ॥ विष्णोः स्वयम्प्रभायां च सुतः श्रीविजयोऽजनि । ततो विजयभद्राख्यः सुता ज्योतिः प्रभाया ॥ १५३ ॥ प्रजापतिमहाराज: 'भूरिप्राप्तमहोदयः । कदाचिज्जातसंवेगः सम्प्राप्य पिहिताश्रवम् ॥ १५४ ॥ आदाज्जैनेश्वरं रूपं त्यक्त्वाऽशेषपरिग्रहम् । येन सम्प्राप्यते भावः सुखात्मपरमात्मनः ॥ १५५ ॥ बाह्येतरद्विषड्भेदतपस्यविरतोद्यमः । चिरं तपस्यन् सश्चित्तमायुरन्ते समादधत् ॥ १५६ ॥ मिथ्यात्वं संगमाभावं प्रमादं सकषायताम् । कैवल्यं स सयोगत्वं त्यक्त्वाऽभूत्परमः क्रमात् ॥ १५७ ॥ खेचरेशोऽपि तच्छ्रुत्वा राज्यं दत्वाऽर्ककीर्तये । निर्ग्रन्थरूपमापो जगचन्दन सविधौ ॥ १५८ ॥ अयाचितमनादानमार्जवं त्यागमस्पृहाम् । क्रोधादिहापनं ज्ञानाभ्यासं ध्यानं च सोऽन्वयात् ॥ १५९॥
चिरकाल तक युद्धकर शत्रुके सन्मुख चक्र फेंका और नारायण त्रिपृष्ठने वही चक्र लेकर क्रोधसे उसकी गर्दन छेद डाली ।। १४४ ॥ शत्रुओंके नष्ट करने वाले त्रिपृष्ठ और विजय आधे भरत क्षेत्रका आधिपत्य पाकर सूर्य और चन्द्रमाके समान सुशोभित हो रहे थे ।। १४५ ।। भूमिगोचरी राजाओं, विद्याधर राजाओं और मागधादि देवोंके द्वारा जिनका अभिषेक किया गया था ऐसे त्रिपृष्ठ नारायण पृथिवीमें श्रेष्ठताको प्राप्त हुए ।। १४६ ।। प्रथम नारायण त्रिपृष्ठने हर्षित होकर स्वयंप्रभाके पिताके लिए दोनों श्रेणियोंका आधिपत्य प्रदान किया सो ठीक ही है क्योंकि श्रीमानोंके आश्रयसे क्या नहीं होता है ? ।। १४७ ।। असि, शङ्ख, धनुष, चक्र, शक्ति, दण्ड और गदा ये सात नारायणके रत्न थे । देवोंके समूह इनकी रक्षा करते थे ।। १४८ ।। रत्नमाला, देदीप्यमान हल, मुसल और गदा ये चार मोक्ष प्राप्त करने वाले बलभद्रके महारत्न थे ।। १४६ ॥ नारायणकी स्वयंप्रभाको आदि लेकर सोलह हजार स्त्रियाँ थीं और बलभद्रकी कुलरूप तथा गुणोंसे युक्त आठ हजार रानियाँ थीं ॥ १५० ॥ ज्वलनजी विद्याधरने कुमार अर्ककीर्तिके लिए ज्योतिर्माला नामकी कन्या बड़ी विभूतिके साथ प्राजापत्य विवाहसे स्वीकृत की ।। १५१ ।। अर्ककीर्ति और ज्योतिर्मालाके अमिततेज नामका पुत्र तथा सुतारा नामकी पुत्री हुई। ये दोनों भाई-बहिन ऐसे सुन्दर थे मानो शुक्लपक्षके पडिवा के चन्द्रमाकी रेखाएँ ही हों ।। १५२ ।। इधर त्रिपृष्ठ नारायणके स्वयंप्रभा रानीसे पहिले श्रीविजय नामका पुत्र हुआ, फिर विजयभद्र पुत्र हुआ फिर, ज्योतिप्रभा नामकी पुत्री हुई ।। १५३ ॥ महान् अभ्युदयको प्राप्त हुए प्रजापति महाराजको कदाचित् वैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे पिहितास्रव गुरुके पास जाकर उन्होंने समस्त परिग्रहका त्याग कर दिया और श्रीजिनेन्द्र भगवान्का वह रूप धारण कर लिया जिससे सुख स्वरूप परमात्माका स्वभाव प्राप्त होता है ।। १५४-१५५ ।। छह बाह्य और छह श्रभ्यन्तरके भेदसे बारह प्रकारके तपश्चरणमें निरन्तर उद्योग करनेवाले प्रजापति मुनिने चिरकाल तक तपस्या की और आयुके अन्तमें चित्तको स्थिर कर क्रम से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, सकषायता तथा सयोगकेवली अवस्थाका त्याग कर परमोत्कृष्ट अवस्था - मोक्ष पद प्राप्त किया ।। १५६१५७ ॥ विद्याधरोंके राजा ज्वलनजटीने भी जब यह समाचार सुना तब उन्होंने अर्ककीर्तिके लिए राज्य देकर जगन्नन्दन मुनिके समीप दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ।। १५८ ॥ याचना नहीं करना, बिना दिये कुछ ग्रहण नहीं करना, सरलता रखना, त्याग करना, किसी चीज्रकी इच्छा नहीं रखना,
१ परिप्राप्त क०, ख०, ग०, घ० । २ श्रा कैवल्यं सयोगत्वं क०, ख० ।
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