________________
द्विषष्टितम पर्व
इत्याहतुः खगेशोऽस्तु पक्षपाती न वार्यते । नाहमेष्यामि तं द्रष्टुमिति प्रत्यव्रबीदसौ ॥ १३० ॥ दादिदं न वक्तव्यमदृष्ट्वा चक्रवर्तिनम् । देहेऽपि न स्थितिभूमौ कः पुनः स्थातुमर्हति ॥ १३१ ॥ इति श्रुत्वा वचो राज्ञा तयोश्चक्रेण वर्तितुम् । शीलोऽसौ किं घटादीनां कारकः कारकाग्रणीः ॥ १३२ ॥ तस्य किं प्रेक्ष्यमित्युक्तौ तौ सकोपाववोचताम् । कन्यारत्नमिदं चक्रिभोग्यं किं तेऽद्य जीर्यते ॥ १३३ ॥ रथनूपुररानाऽसौ ज्वलनादिजटी कथम् । प्रजापतिश्च नामापि सन्धत्ते चक्रिणि द्विपि ॥ १३४ ॥ इति सद्यस्ततो दूतौ निर्पत्य' द्रुतगामिनौ । प्राप्याश्वग्रीवमानम्य प्रोचतुस्तद्विजृम्भणम् ॥ १३५ ॥ खगेश्वरोऽपि तत्क्षन्तुमक्षमो रूक्षवीक्षणः । भेरीमास्फालयामास रणप्रारम्भसूचिनीम् ॥ १३६ ।। तद्ध्वनिाप दिकप्रान्तान् हत्वा दिग्दन्तिनां मदम् । चक्रवर्तिनि संक्रुद्ध महान्तः के न बिभ्यति॥१३७॥ चतुरङ्गबलेनासौ रथावर्तमगात् गिरिम् । पेतुरुल्काश्चचालैला दिक्षु दाहा जम्भिरे ॥ १३८ ॥ प्रजापतिसुतौ चैतद्विदित्वा विततौजसौ। प्रतीयतुः प्रतापाग्निभस्मितारीन्धनोचयौ ॥ १३९ ॥ उभयोः सेनयोस्तत्र संग्रामः समभून्महान् । समक्षयात्तयोः प्रापदन्तकः समवतिंताम् ॥ १४० ॥ युवा चिरं पदातीनां वृथा किं क्रियते क्षयः । इति त्रिपृष्ठो युद्धार्थभभ्यश्वग्रीवमेयिवान् ॥ ॥ १४१ ॥ हयग्रीवोऽपि जन्मान्तरानुबद्धोरुबैरतः। आच्छादयदतिक्रुद्धः शरवर्षेविरोधिनम् ॥ १४२ ॥ द्वन्द्वयुद्धन तौ जेतुमक्षमावितरेतरम् । मायायुद्धं समारब्धी महाविद्याबलोद्धतौ ॥ १४३ ॥ युवा चिरं हयग्रीवश्चक्रं न्यक्षिपदभ्यरिम् । तदैवादाय तद्ग्रीवामच्छिदत् केशवः क्रुधा ॥ १४४ ॥ द्वारा पजनीय है और आपका पक्ष करता है इसलिए उसका अपमान करना उचित नहीं है।।१२। यह सुनकर त्रिपृष्ठने कहा कि वह खग अर्थात् पक्षियोंका ईश है-स्वामी है इसलिए पक्ष अर्थात् पंखोंसे चले इसके लिए मनाई नहीं है परन्तु मैं उसे देखनेके लिए नहीं जाऊंगा॥ १३० ।। यह सुनकर दूतोंने फिर कहा कि अहंकारसे ऐसा नहीं कहना चाहिये। चक्रवर्तीके देखे विना शरीरमें भी स्थिति नहीं हो सकती फिर भूमि पर स्थिर रहनेके लिए कौन समर्थ है ? ॥ १३१ ॥ दूतोंके वचन सुनकर त्रिपृष्ठने फिर कहा कि तुम्हारा राजा चक्र फिराना जानता है सो क्या वह घट आदिको बनाने वाला (कुम्भकार) कर्ता कारक है, उसका क्या देखना है ? यह सुनकर दूतोंको क्रोध आ गया। वे कुपित होकर बोले कि यह कन्यारत्न जो कि चक्रवर्तीके भोगने योग्य है क्या अब तुम्हें हजम हो जावेगा? और चक्रवतीके कुपित होने पर रथनूपुरका राजा ज्वलनजटी तथा प्रजापति अपना नाम भी क्या सुरक्षित रख सकेगा। इतना कह वे दूत वहाँसे शीघ्र ही निकल कर अश्वग्रीवके पास पहुंचे और नमस्कार कर त्रिपृष्ठके वैभवका समाचार कहने लगे ॥ १३२-१३५ ।। अश्वग्रीव यह सब सुननेके लिए असमर्थ हो गया, उसकी आंखें रूखी हो गई और उसी समय उसने युद्ध प्रारम्भकी सूचना देने वाली भेरी बजवा दी ॥ १३६ ॥ उस भेरीका शब्द दिग्गजोंका मद नष्टकर दिशाओंके अन्त तक व्याप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि चक्रवर्तीके कुपित होने पर ऐसे कौन महापुरुष हैं जो भयभीत नहीं होते हों ॥ १३७ ॥ वह अश्वग्रीव चतुरङ्ग सेनाके साथ रथावर्त पर्वत पर जा पहुँचा, वहाँ उल्काएँ गिरने लगीं, पृथिवी हिलने लगी और दिशाओं में दाह दोष होने लगे ॥ १३८ ॥ जिनका ओज चारों ओर फैल रहा है और जिन्होंने अपने प्रतापरूपी अग्निके द्वारा शत्रुरूपी इन्धनकी राशि भस्म कर दी है ऐसेप्रजापतिके दोनों पुत्रोंको जब इस बातका पता चला तो इसके संमुख आये ।। १३६ ॥ वहाँ दोनों सेनाओंमें महान संग्राम हुआ । दोनों सेनाओंका समान क्षय हो रहा था इसलिए यमराज सचमुच ही समवर्तिता-मध्यस्थताको प्राप्त हुआ था ॥ १४० ॥ चिरकाल तक युद्ध करनेके बाद त्रिपृष्ठने सोचा कि सैनिकोंका व्यर्थ ही क्षय क्यों किया जाता है। ऐसा सोचकर वह युद्धके लिए अश्वग्रीवके सामने आया ।। १४१॥ जन्मान्तरसे बँधे हुए भारी वैरके कारण अश्वग्रीव बहुत क्रद्ध था अतः उसने बाण-वर्षाके द्वारा शत्रुको आच्छादित कर लिया ॥ १४२ ।। जब वे दोनों द्वन्द्व युद्धसे एक दूसरेको जीतनेके लिए समर्थ न हो सके तब महाविद्याओंके बलसे उद्धत हुए दोनों मायायुद्ध करनेके लिए तैयार हो गये ॥ १४३ ॥ अश्वग्रीवने
१ निर्गम्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org