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द्विषष्टितम पर्व
१४५ स दूतो राजगह स्वं सम्प्रविश्य सभागृहे। निजासने समासीनः प्राभृतं सचिवार्पितम् ॥ १.०॥ विलोक्य रागाद् भूपेन स्वानुरागः समर्पितः। प्राभृतेनैव तुष्टाः स्म इति दूतं प्रतोषयन् ॥ १० ॥ श्रीत्रिपृष्ठः कुमाराणां वरिष्ठः कन्ययाऽनया । स्वयम्प्रभाख्यया लक्ष्म्येवाचालक्रियतामिति ॥ १०२ ॥ श्रुत्वा यथार्थमस्याविभूतद्विगुणसम्मदः । वाचिकं च समाकर्ण्य भुजामाकान्तमस्तकः ॥ १०३ ॥ स्वयमेव खगाधीशः स्वजामातुर्महोदयम् । इमं विधातुमन्यञ्च' सचिन्तस्तत्र के वयम् ॥ १४ ॥ इति दूतं तदायातं कार्यसिद्ध्या प्रसाधयन् । प्रपूज्य प्रतिदतं च प्रदायाशु व्यसर्जयत् ॥ १०५ ॥ स दूतः सत्वरं गत्वा रथनूपुरनायकम् । प्राप्य प्रणम्य कल्याणकार्यसिद्धिं व्यजिज्ञपत् ॥ १०६ ॥ तच्छ्रुत्वा खेचराधीशः प्रप्रमोदप्रचोदितः । न कालहरणं कार्यमिति कन्यासमन्वितः ॥ १० ॥ महाविभूत्या सम्प्राप्य नगर पोदनालयम् । उद्बतोरणं दत्तचन्दनच्छदमुत्सुकम् ॥ १०८॥ केतुमालाचलहोभिरालयद्वातिसम्भ्रमात् । प्रतिपातः स्वसम्पत्या महीशः प्राविशन्मुदा ॥ १०९ ॥ प्रविश्य स्वोचितस्थाने तेनैव विनिवेशितः। प्राप्तप्राघूर्णकाचारप्रसन्नहृदयाननः ॥१०॥ विवाहोचितविन्यासैस्तपिताशेषभूतलः । स्वयम्प्रभा प्रभा वान्यां त्रिपृष्ठाय प्रदाय ताम् ॥११॥ सिंहाहिविद्विवाहिन्यौ विये साधयितं ददौ । ते तत्र सर्वे सम्भूय व्यगाहन्त सुखाम्बुधिम् ॥ १२॥ इतोऽश्वग्रीवचक्रेशो विनाशपिशुनः पुरे । उत्पातत्रिविधः प्रोक्तः सद्यः सममुदुधयौ ॥ ११३॥ अभूतपूर्व तं दृष्टा सहसा भीतिमान् जनः । पल्योपमाष्टभागोवशेषे वा भोगभूभुवः ॥ ११४ ॥
नामके वनमें बड़े उत्सवसे स्वागत-सत्कार किया ॥६-६॥ महाराज उस दूतके साथ अपने राजभवनमें प्रविष्ट होकर जब सभागृहमें राजसिंहासन पर विराजमान हुए तब मन्त्रीने दूसके द्वारा लाई हुई भेंट समर्पित की। राजाने उस भेंटको बड़े प्रेमसे देखकर अपना अनुराग प्रकट किया
और दूतको सन्तुष्ट करते हुए कहा कि हम तो इस भेंटसे ही सन्तुष्ट हो गये॥१००-१०१॥ तदनन्तर दूतने सन्देश सुनाया कि यह श्रीमान् त्रिपृष्ठ समस्त कुमारोंमें श्रेष्ठ है अतः इसे लक्ष्मीके समान स्वयम्प्रभा नामकी इस कन्यासे आज सुशोभित किया जावे। इस यथार्थ सन्देशको सुनकर प्रजापति महाराजका हर्ष दुगुना हो गया। वे मस्तक पर भुजा रखते हुए बोले कि जब विद्याधरोंके राजा स्वयं ही अपने जमाईका यह तथा अन्य महोत्सव करनेके लिए चिन्तित हैं तब हमलोग क्या चीज़ हैं ? ॥ १०२-१०४ ।। इस प्रकार उस समय आये हुए दूतको महाराज प्रजापतिने कार्यकी सिद्धिसे प्रसन्न किया, उसका सम्मान किया और बदलेकी भेंट देकर शीघ्र ही विदा कर दिया ॥ १०५ ॥ वह दूत भी शीघ्र ही जाकर रथनूपुरनगरके राजाके पास पहुँचा और प्रणाम कर उसने कल्याणकारी कार्य सिद्ध होनेकी खबर दी ।। १०६ ।। यह सुनकर विद्याधरोंका राजा बहुत भारी हर्षसे प्रेरित हुआ और सोचने लगा कि इस कार्य में विलम्ब करना योग्य नहीं है। यह विचार कर वह कन्या सहित बड़े ठाट-बाटसे पोदनपुर पहुँचा। उस समय उस नगरमें जगह-जगहतोरण बांधे गये थे, चन्दनका छिड़काव किया था, सब जगह उत्सुकता ही उत्सुकता दिखाई दे रही थी, और पताकाओंकी पंक्ति रूप चञ्चल भुजाओंसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो बुला ही रहा हो । महाराज प्रजापतिने अपनी सम्पत्तिके अनुसार उसकी अगवानी की। इस प्रकार उसने बड़े हर्षसे नगरमें प्रवेश किया ॥ १०७॥ १०६ ।। प्रवेश करनेके बाद महाराज प्रजापतिने उसे स्वयं ही योग्य स्थान पर ठहराया और पाहुनेके योग्य उसका सत्कार किया। इस सत्कारसे उसका हृदय तथा मुख दोनों ही प्रसन्न हो गये ॥११०॥ विवाहके योग्य सामग्रीसे उसने समस्त पृथिवी तलको सन्तुष्ट किया और दूसरी प्रभाके समान अपनी स्वयंप्रभा नामकी पुत्री त्रिपृष्ठके लिए देकर सिद्ध करनेके लिए सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी नामकी दो विद्याएँ दीं। इस तरह वे सब मिलकर सुखरूपी समुद्रमें गोता लगाने लगे ॥१११-११२॥ इधर अश्वग्रीव प्रतिनारायणके नगरमें विनाशको सूचित करनेवाले तीन प्रकारके उत्पात बहुत शीघ्र साथ ही साथ होने लगे ॥ ११३ ॥ जिस प्रकार तीसरे कालके अन्तमें पल्यका
१-मत्यन्त ख० ।-मन्यच क०, ग०, प० ।
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