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महापुराणे उत्तरपुराणम् स्वयम्प्रभायाः कवचेतोवल्लभो भवतेति तम् । अपृच्छत् स पुराणार्थवेदीत्थं प्रत्युवाच तम् ॥ ८४ ॥ गुरुः प्रथमचक्रेशं प्राकपुराणनिरूपणे । आदिकेशवसम्बद्धमित्यवोचत्कथान्तरम् ॥ ८५॥ द्वीपेऽस्मिन् पुष्कलावत्यां विषये प्राग्विदेहजे । समीपे पुण्डरीकिण्या नगर्या मधुके वने ॥ ८६ ॥ पुरूरवा वनाधीशो मार्गभ्रष्टस्य दर्शनात् । मुनेः सागरसेनस्य पथः सञ्चितपुण्यकः ॥ ८७ ॥ मद्यमांसनिवृत्तेश्च कृतसौधर्मसम्भवः। ततः प्रच्युत्य तेऽनन्तसेनायाश्च सुतोऽभवत् ॥ ८८ ॥ मरीचिरेष दुर्मार्गदेशनानिरतश्विरम् । भान्वा संसारचक्रेऽस्मिन् सुरम्यविषये पुरम् ॥ ८९ ॥ पोदनाख्यं पतिस्तस्य प्रजापतिमहानृपः । स तनूजो मृगावत्यां त्रिपृष्टोऽस्य भविष्यति ॥१०॥ अग्रजोऽस्यैव भद्राया विजयो भविता सुतः । तावेतौ श्रेयसस्तीर्थे हत्वाऽश्वग्रीवविद्विषम् ॥११॥ त्रिखण्डराज्यभागेशौ प्रथमौ बलकेशवौ। त्रिपृष्टः संसृतौ भान्त्वा भावी तीर्थकरोऽन्तिमः ॥ ९२ ॥ भवतोऽपि नमेः कच्छसुतस्यान्वयसम्भवात् । वंशजे नास्ति सम्बन्धस्तेन बाहुबलीशितुः ॥ १३ ॥ त्रिपृष्ठाय प्रदातव्या त्रिखण्डश्रीसुखेशिने । अस्तु तस्य मनोही कन्या कल्याणभागिनी ॥ १४ ॥ तेनैव भवतो भावि विश्वविद्याधरेशिता । निश्चित्येतदनुष्ठेयमादितीर्थकरोदितम् ॥ १५॥ इति तद्वचनं चित्ते विधाय तमसो मुदा । नैमित्तिकं समापूज्य स्थनूपुरभूपतिः ॥ १६ ॥ सुदतमिन्दुनामानं सुलेखोपायनान्वितम् । प्रजापतिमहाराज प्रतिसम्माहिणेत्तदा ॥ १७ ॥ स्वयम्प्रभापतिर्भावी त्रिपृष्ठ इति भूपतिः। नैमित्तिकाद्विदित्वैतज्जयगुप्तात्पुरैव सः ॥ १८ ॥ खचराधिपदूतं खादवतीर्ण महोत्सवः । प्रतिगृह्य ससन्मानं वने पुष्पकरण्डके ॥ १९ ॥
निमित्तज्ञानीसे पूछा कि स्वयंप्रभाका हृदयवल्लभ कौन होगा ? पुराणोंके अर्थको जाननेवाले निमित्तज्ञानीने राजाके लिए निम्नप्रकार उत्तर दिया ।।८३-८४ ॥ वह कहने लगा कि भगवान् ऋषभदेवने पहले पुराणोंका वर्णन करते समय प्रथम चक्रवतीसे, प्रथम नारायणसे सम्बन्ध रखनेवाली एक कथा कही थी। जो इस प्रकार है
इसी जम्बूद्वीपके पूर्वविदेह क्षेत्रमें एक पुष्कलावती नामका देश है उसकी पण्डरीकिणी नगरीके समीप ही मधुक नामके वनमें पुरूरवा नामका भीलोंका राजा रहता था। किसी एक दिन मार्ग भूल जानेसे इधर-उधर घूमते हुए सागरसेन मुनिराजके दर्शन कर उसने मार्गमें ही पुण्यका संचय किया तथा मद्य मांस मधुका त्याग कर दिया। इस पुण्यके प्रभावसे वह सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न हुआ और वहांसे च्युत होकर तुम्हारी अनन्तसेना नामकी स्त्रीके मरीचि नामका पुत्र हुआ है। यह मिथ्या मार्गके उपदेश देनेमें तत्पर है इसलिए चिरकाल तक इस संसाररूपी चक्रमें भ्रमण कर सुरम्यदेशके पोदनपर नगरके स्वामी प्रजापति महाराजकी मृगावती रानीसे त्रिप्रष्ट नामका पत्र होगा ॥८५-६०॥ उन्हीं प्रजापति महाराजकी दूसरी रानी भद्राके एक विजय नामका पुत्र होगा जो कि त्रिपृष्ठका बड़ा भाई होगा। ये दोनों भाई श्रेयान्सनाथ तीर्थकरके तीर्थमें अश्वग्रीव नामक शत्रुको मार कर तीन खण्डके स्वामी होंगे और पहले बलभद्र नारायण कहलावेंगे। त्रिपृष्ठ संसारमें भ्रमण कर अन्तिम तीर्थंकर होगा ।।६१-६२ ॥ आपका भी जन्म राजा कच्छके पुत्र नमिके वंशमें हुआ है अतः बाहुबली स्वामीके वंशमें उत्पन्न होनेवाले उस त्रिपृष्ठके साथ आपका सम्बन्ध है ही॥६॥ इसलिए तीन खण्डकी लक्ष्मी और सुखके स्वामी त्रिपृष्ठके लिए यह कन्या देनी चाहिये, यह कल्याण करने वाली कन्या उसका मन हरण करनेवाली हो ॥६४ ॥ त्रिपृष्ठको कन्या देनेसे आप भी समस्त विद्याधरोंके स्वामी हो जावेंगे इसलिए भगवान् आदिनाथके द्वारा कही हुई इस बातका निश्चय कर
आपको यह अवश्य ही करना चाहिये ॥६५॥ इस प्रकार निमित्तज्ञानीके वचनों को हृदयमें धारण करण कर रथनूपुर नगरके राजाने बड़े हर्षसे उस निमित्तज्ञानीकी पूजाकी ॥६६॥ और उसी समय उत्तम लेख और भेंटके साथ इन्दु नामका एक दूत प्रजापति महाराजके पास भेजा ॥७॥ 'यह त्रिपृष्ठ स्वयंप्रभाका पति होगा' यह बात प्रजापति महाराजने जयगुप्त नामक निमित्तानीसे पहले ही जान ली थी इसलिये उसने आकाशसे उतरते हुए विद्याधरराजके दूतका, पुष्पकरण्डक
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