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द्विषष्टितमं पर्व
कुलारोग्यवयोरूपाद्युपेताय यदीष्यते । दातुं कन्या मया किञ्चिदुच्यते श्रूयतां मनाक् । ॥ ७० ॥ पुरं सुरेन्द्रकान्तारमुदक्श्रेण्यां तदीश्वरः । मेघवाहननामास्य प्रियाभून्मेघमालिनी ॥ ७१ ॥ तयोर्विद्युत्प्रभः सूनुज्र्ज्योतिर्मालामला सुता । खगाधीशो ननन्दाभ्यामिवायेन धिया च सः ॥ ७२ ॥ सिद्धकूटमगात्स्तोतुं कदाचिन्मेघवाहनः । तत्र दृष्ट्वाऽवधिज्ञानं वरधर्माख्यचारणम् ॥ ७३ ॥ वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य स्वसूनोः प्राक्तनं भवम् । पप्रच्छ शृणु विद्याभृत्प्रणिधायेति सोऽब्रवीत् ॥ ७४ ॥ द्वीपेऽस्मिन् प्राग्विदेहेऽस्ति विषयो वत्सकावती । पुरी प्रभाकरो राजा नन्दनः सुन्दराकृतिः ॥ ७५ ॥ सूनुर्विजयभद्रोऽस्य जयसेनोदरोदितः । सोऽन्यदा फलितं चूतं घने वीक्ष्य मनोहरे ॥ ७६ ॥ विफलं तत्समुद्भूतवैराग्यः पिहिताश्रवात् । गुरोः सहस्रैर्भूपालैश्चतुर्भिः संयमं ययौ ॥ ७७ ॥ प्रान्ते माहेन्द्रकल्पेऽभूद्विमाने चक्रकाह्नये । सप्ताब्धिजीवितो दिव्य भोगांस्तत्रान्वभूच्चिरम् ॥ ७८ ॥ ततः प्रच्युत्य सूनुस्तेऽजायतार्थं प्रयाति च । निर्वाणमिति संस्तोतुं मया यातेन तच्छ्रुतम् ॥ ७९ ॥ तस्मै वरगुणैः सर्वैः पूर्णायेयं प्रदीयताम् । ज्योतिर्मालां च गृहणीम सपुण्यामर्ककीर्तये ॥ ८० ॥ इति तद्वचनं श्रुत्वा सुमतिर्मतिवत्तमः । कन्यां सम्प्रार्थयन्तेऽमी खगाधीशाः पृथक् पृथक् ॥ ८१ ॥ तस्मान्नास्मै प्रदातव्या बहुवैरं भवेशतः । स्वयंवरविधिः श्रेयानित्युक्त्वा विरराम सः ॥ ८२ ॥ तदेवानुमतं सर्वैस्ततः सम्पूज्य मन्त्रिणः । विसर्ज्यं खेचराधीशः सम्भिन्नश्रोतृसंज्ञकम् ॥ ८३ ॥ वचन हृदयमें धारण कर तथा विचार कर स्मृतिरूपी नेत्रको धारण करनेवाला श्रत नामका तीसरा मन्त्र निम्नाति मनोहर वचन कहने लगा ॥ ६६ ॥ यदि कुल, आरोग्य, वय और रूप आदिसे सहित वर के लिए कन्या देना चाहते हों तो मैं कुछ कहता हूं उसे थोड़ा सुनिये ॥ ७० ॥
इसी विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में सुरेन्द्रकान्तार नामका नगर है उसके राजाका नाम मेघवाहन है। उसके मेघमालिनी नामकी वल्लभा है । उन दोनोंके विद्युत्प्रभ नामका पुत्र और ज्योतिर्माला नामकी निर्मल पुत्री है । खगेन्द्र मेघवाहन इन दोनों पुत्र-पुत्रियोंसे ऐसा समृद्धिमानसम्पन्न हो रहा था जैसा कि कोई पुण्य कर्म और सुबुद्धिसे होता है । अर्थात् पुत्र पुण्यके समान था और पुत्री बुद्धिके समान थी ।।७१-७२।। किसी एक दिन मेघवाहन स्तुति करनेके लिए सिद्धकूट गया था । वहाँ वरधर्म नामके अवधिज्ञानी चारणऋद्धिधारी मुनिकी बन्दना कर उसने पहले तो धर्मका स्वरूप सुना और बादमें अपने पुत्रके पूर्वं भव पूछे । मुनिने कहा कि हे विद्याधर ! चित्तलगाकर सुनो, मैं कहता हूँ ।। ७३-७४ ।।
जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह क्षेत्रमें वत्सकावती नामका देश है उसमें प्रभाकरी नामकी नगरी है वहाँ सुन्दर आकार वाला नन्दन नामका राजा राज्य करता था ।। ७५ ।। जयसेना स्त्रीके उदरसे उत्पन्न हुआ विजयभद्र नामका इसका पुत्र था । उस विजयभद्रने किसी दिन मनोहर नामक उद्यानमें फला हुआ आमका वृक्ष देखा फिर कुछ दिन बाद उसी वृक्षको फलरहित देखा। यह देख उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया और पिहितास्रव गुरुसे चार हजार राजाओंके साथ संयम धारण कर लिया ।। ७६-७७ ।। आयुके अन्त में माहेन्द्र स्वर्गके चक्रक नामक विमानमें सातसागर की आयुबाला देव हुआ ! वहाँ चिरकाल तक दिव्यभोगोंका उपभोग करता रहा ॥ ७८ ॥ वहाँसे च्युतहोकर यह तुम्हारा पुत्र हुआ है और इसी भवसे निर्वाणको प्राप्त होगा । श्रुतसागर मन्त्री कहने लगा कि मैं भी स्तुति करने के लिए सिद्धकूट जिनालय में वरधर्म नामक चारण मुनिके पास गया था वहीं यह सब मैंने सुना है ॥ ७६ ॥ इस प्रकार विद्युत्प्रभ वरके योग्य समस्त गुणोंसे सहित है उसे ही यह कन्या दी जावे और उसकी पुण्यशालिनी बहिन ज्योतिर्मालाको हमलोग अर्ककीर्तिके लिए स्वीकृत करें ।। ८० ।। इस प्रकार श्रुतसागर के वचन सुनकर विद्वानोंमें अत्यन्त श्रेष्ठ सुमति नामका मन्त्री बोला कि इस कन्याको पृथक्-पृथक् अनेक विद्याधर राजा चाहते हैं इसलिए विद्युत्प्रभको कन्या नहीं देनी चाहिये क्योंकि ऐसा करनेसे बहुत राजाओंके साथ वैर हो जानेकी सम्भावना है मेरी समझसे तो स्वयंवर करना ठीक होगा। ऐसा कहकर वह चुप हो गया ॥ ८१-८२ ॥ सब लोगोंने यही बात स्वीकृत कर ली, इसलिए विद्याधर राजाने सब मन्त्रियोंको विदा कर दिया और संभिन्नश्रोतृ नामक
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