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महापुराणे उत्तरपुराणम् प्रमाणनयनिक्षेपानुयोगैरन्यदुर्गमैः । पदार्थानां परीक्षेव गोपुरैर्यावभासते ॥ २८ ॥ भशीलभूषणा यत्र न सन्ति कुलयोषितः । वाचो जिनेन्द्रविद्यायामिवाचारित्रदेशिकाः ॥ २९ ॥ ज्वलनादिजटी तस्याः पतिः खगपतिः कृती। मणीनामिव वाराशिर्गुणिनामाकरोऽभवत् ॥ ३०॥ प्रतापाद्विद्विषो यस्य मम्लुर्किस्य पल्लवाः । वृष्ट्याऽवर्द्धन्त वल्लयो वा नीत्या सफलाः प्रजाः॥३॥ तेन स्थाने यथाकालं शालयो वा सुयोजिताः । सामादयः सदोपायाः प्राफलन् बहुभोगतः ॥ ३२॥ अतीतान् विश्वभूपेशान् सङ्ख्याभेदानिवोत्तरः । गुणस्थानकवृद्धिभ्यां विजित्य स महानभूत् ॥ ३३ ॥ उभयायत्तसिद्धित्वाद् दैवपौरुषयोगतः। कोपद्वयव्यपेतत्वाचन्त्रावापविमर्शनात् ॥ ३४ ॥ शक्तिसिद्धयनुगामित्वाद्योगक्षेमसमागमात् । षड्गुणानुगुणत्वाच तद्राज्यमुदितोदितम् ॥ ३५॥ तिलकान्तदिवीत्यासीत्पुरं तत्र महीपतिः। चन्द्राभस्तत्प्रिया नाम्ना सुभद्रेति तयोः सुता ॥ ३६॥ वायुवेगाजिताशेषवेगिविद्याधराधिपा । स्ववेगविद्यया प्रोद्यद्विद्यदुद्योतजिद्युतिः ॥ ३० ॥ तस्य त्रिवर्गनिष्पत्त्यै सा विश्वगुणभूषणा । भूता पुरुषकारस्य सदैवस्येव शेमुषी ॥ ३८॥ प्रतिपश्चन्द्ररेखेव सा सर्वजनसंस्तुता । द्वितीयेव धरारक्ता भोग्या तेन स्वपौरुषात् ॥ ३९ ॥ लक्ष्मीः परिकरस्तस्या व्यधायि विविधडिंका। तत्प्रेमप्रेरणाचेन वा लभ्ये न करोति किम् ॥ ४०॥
दिखाई देता था-सदा छुपा रहता था ।। २७ । जिस प्रकार अन्य मतावलम्बियोंके लिए दुर्गमेकठिन प्रमाण, नय, निक्षेप और अनुयोग इन चार उपायोंके द्वारा पदार्थोंकी परीक्षा सुशोभित होती है उसी प्रकार शत्रुओंके लिए दुर्गम-दुःखसे प्रवेश करने के योग्य चार गोपुरोंसे वह नगरी सुशोभित हो रही थी॥२८॥ जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवानकी विद्यामें अचारित्र-असंयमका उपदेश देनेवाले वचन नहीं हैं उसी प्रकार उस नगरीमें शीलरूपी आभूषणसे रहित कुलवती स्त्रियाँ नहीं थीं ॥२६॥ ज्वलनजटी विद्याधर उस नगरीका राजा था, जो अत्यन्त कुशल था और जिस प्रकार मणियोंका आकर-खान समुद्र है उसी प्रकार वह गुणी मनुष्योंका आकर था ॥ ३०॥ जिस प्रकार सूर्यके प्रतापसे नये पत्ते मुरझा जाते हैं उसी प्रकार उसके प्रतापसे शत्रु मुरझा जाते थे-कान्ति हीन हो जाते थे और जिस प्रकार वर्षासे लताएँ बढ़ने लगती हैं उसी प्रकार उसकी नीतिसे प्रजा सफल होकर बढ़ रही थी॥३१ ।। जिस प्रकार यथा समय यथा स्थान बोये हुए धान उत्तम फल देते हैं उसी प्रकार उसके द्वारा यथा समय यथा स्थान प्रयोग किये हुए साम आदि उपाय बहुत फल देते थे ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार आगेकी संख्या पिछली संख्याओंसे बड़ी होती है उसी प्रकार वह राजा पिछले समस्त राजाओंको अपने गुणों और स्थानोंसे जीतकर बड़ा हुआ था ॥३३॥ उसकी समस्त सिद्धियाँ देव और पुरुषार्थ दोनोंके आधीन थीं, वह मंत्री आदि मूल प्रकृति तथा प्रजा
आदि बाह्य प्रकृतिके क्रोधसे रहित होकर स्वराष्ट्र तथा परराष्ट्रका विचार करता था, उत्साह शक्ति, मन्त्र शक्ति और प्रभुत्वशक्ति इन तीन शक्तियों तथा इनसे निष्पन्न होने वाली तीन सिद्धियोंकी अनुकूलतासे उसे सदा योग और क्षेमका समागम होता रहता था, साथ ही वह सन्धि विग्रह यान आदि छह गुणोंकी अनुकूलता रखता था इसलिए उसका राज्य निरन्तर बढ़ता ही रहता था ॥ ३४-३५ ॥
उसी विजयाध पर द्युतिलक नामका दूसरा नगर था। राजा चन्द्राभ उसमें राज्य करता था, उसकी रानीका नाम सुभद्रा था। उन दोनोंके वायुवेगा नामकी पुत्री थी। उसने अपनी वेग विद्याके द्वारा समस्त वेगशाली विद्याधर राजाओंको जीत लिया था। उसकी कान्ति चमकती हुई बिजलीके प्रकाशको जीतने वाली थी॥ ३६-३७॥ जिस प्रकार भाग्यशाली पुरुषार्थी मनुष्यकी बुद्धि उसकी त्रिवर्ग सिद्धिका कारण होती है उसी प्रकार समस्त गुणोंसे विभूषित वह वायुवेगा राजा ज्वलनजटीकी त्रिवर्गसिद्धिका कारण हुई थी॥ ३८ ॥ प्रतिपदाके चन्द्रमाकी रेखाके समान बह सब मनुष्योंके द्वारा स्तुत्य थी। तथा अनुरागसे भरी हुई द्वितीय भूमिके समान वह अपने ही पुरुषार्थसे राजा ज्वलनके भोगने योग्य हुई थी ॥३६॥ वायुवेगाके प्रेमकी प्रेरणासे ज्वलन
१ कोपोदयव्यपेतत्वात्तत्रा-ल० ।
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